Wednesday, August 11, 2010

विष्णु खरे उर्फ घुड़मक्खी के नाम खुला पत्र

घुड़मक्खी ने फिर मुंह खोला है, इस आलोचक की हकीकत विमल कुमार जैसे लोगों ने पहले पहचान ली थी करीब एक साल पहले लिखे गए खुले पत्र को पढ़िए। साहित्य के खेल में माहिर इस शख्स की हकीकत साफ हो जाएगी। 


विष्णु खरे के नाम खुला पत्र


November 16th, 2009
 सम्माननीय विष्णु जी,

उर्वर-प्रदेश-3 के प्रकाशन के बाद आपसे टेलीफोन पर कई बार संपर्क करने की जब कोशिश विफल हो गई तब यह खुला खत लिखने का विचार आया। आपको एक एसएमएस भी भेजा जिसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। इस पत्र को लिखने का मकसद सिर्फ इतना है कि आपने उर्वर प्रदेश की भूमिका के बतौर जो प्रश्न खड़े किए हैं, उनका जवाब यहां दिया जा सके। मैं आपकी तरह बहुपठित और सुविज्ञ नहीं हूं और न ही आपकी तरह काल-सृजन में निष्णात हूं पर जिस तरह आपको अपनी बात कहने का अधिकार है, उसी तरह मुझे भी अपना प्रतिवाद करने का अधिकार है। इसी अधिकार के तहत मैं अपनी आपत्तियों को दर्ज करना चाहता हूं।

बेशक, आपको पुरस्कृत कवियों की आलोचना करने और उनके बारे में निजी राय रखने का अधिकार है। मैं इसके इस अधिकार को चुनौती नहीं देता हूं। मैं तो इसका ध्‍यान साहित्य और आलोचना की नैतिकता एवं शिष्टता की तरफ दिलाना चाहता हूं। आप भी जानते होंगे, साहित्य कर्म सर्वाधिक गरिमामय कर्म है। साहित्य का मकसद ही भाषा की पवित्रता, गरिमा और संस्कार को बचाना है। इस तरह उसका काम कुछ मूल्यों और आदर्श को बचाना भी है। यह अच्छी बात है कि आप स्पष्टवादी हैं, लेकिन स्पष्टवादी व्यक्ति नैतिक भी होता है। वह अगर दूसरों की अनैतिकता पर प्रश्न खड़ा करता है, तो पहले उसे भी नैतिक मानदंडों पर खरा उतरना चाहिए। आपने चूंकि निर्णायकों, नियामकों और प्राप्तकर्ताओं के नैतिक उत्तरदायित्व का प्रश्न उठाया है। इसलिए मेरा आपसे प्रश्न है कि क्या एक निर्णायक के रूप में आपका यह नैतिक उत्तरदायित्व बनता है कि आप जिस पुस्तक की भूमिका लिख रहे हैं, उसमें ही आप कवियों की आलोचना नहीं छिद्रात्वेषण कर रहे हैं और इसको पहले से इसका भान है कि यह विवादास्पद जायजा है। इसका अर्थ यह हुआ कि आपकी भूमिका आपकी ही नजर में विवादास्पद है। अगर कोई आपकी आलोचना करते हुए ‘विवादास्पद जायजा’ बताता तो बात समझ में आती पर आपने खुद अपनी भूमिका को पाठकों के बीच जाने से पहले ही विवादास्पद करार दिया।

इतना ही नहीं, अगर आपको निर्णायकों के अभिमतों पर इतनी ही आपत्ति थी तो आप तीस वर्षों तक क्यों चुप रहे। आप खुद निर्णायक थे और पांचों निर्णायकों के हस्ताक्षर से प्रमाणपत्र मिलते रहे हैं। आपने कभी उन पर हस्ताक्षर करने से मना नहीं किया। भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के जाते, और बीस वर्ष पूरे होने पर भी समारोह हुए, आपने मंच से या कहीं लिखकर इस तरह की कोई आपति दर्ज नहीं की। आपने यह भी लिखा है कि ”हिंदी में व्यामोह और षडयंत्र सिध्दांत का लगभग स्थाई अंत है, सो अलग। इसलिए अन्य पुरस्कारों सहित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार का भी हर वर्ष जाति, प्रदेश, क्षेत्र, बोली, आस्था, विभिन्न किस्मों के अंतरंग संबंधा, रसूख विनिमय आदि के सच्चे-झूठे संदेह किए ‘ए गर्ल इन एवरी पोर्ट’ की तरह ही जाते रहे हैं।” आपने केवल संदेह की बात कही होती तो हम एतराज नहीं करते, पर आपने सच्चे संदेह की बात भी कही है। इस तरह के संदेह सार्वजनिक रूप से कब और कहां व्यक्त किए गए, यह बात हम लोग जानना चाहते हैं। जाहिर है, हर वर्ष संदेह किए जाते रहे तो जब आपने पुरस्कार दिए तो उस वर्ष भी संदेह किए जाते रहे होंगे। चूंकि संदेह सच्चे भी हैं तो क्या आप यह स्वीकार करेंगे कि आपने भी जाति, प्रदेश, क्षेत्र, बोली, आस्था, रसूख विनिमय के आधार पर पुरस्कार दिए। और यह विभिन्न किस्म के अंतरंग संबंध क्या होते हैं, क्या आप ‘विभिन्न किस्म’ शब्द का अर्थ खोलेंगे क्योंकि आजकल धारा-377 की भी बहुत चर्चा है। क्या यह किस्म उल्टी धारा का है? आप कवि हैं। शब्दों के अर्थ बखूबी जानते हैं। उसका ‘पाठ’ और ‘कुपाठ’ भी जानते हैं। शब्दों के इशारे भी समझते हैं। आप इन शब्दों से किस ओर इशारा कराते हैं, हिंदी की दुनिया अच्छी तरह जानती है। आप कितने स्त्री विरोधी हैं कि आपका ध्‍यान ‘अतरंग संबंधों की तरफ जा रहा है? आपको भूमिका लिखने का दायित्व पुरस्कृत कवियों की कविताओं का विश्लेषण करने के लिए दिया गया था या ‘विभिन्न किस्म के अतरंग संबंधों पर ध्‍यान केंद्रित करने के लिए। क्या हिंदी आलोचना इसी तरह के अतरंग संबंधों की ही तलाश करती रहेगी! यह कहां का नैतिक उत्तरदायित्व है।

लेकिन इतने तरह के ‘संदेहों’ की बात करते हुए भी आपको यह पुरस्कार सर्वाधिक प्रतिष्ठित लगता है। अगर ये संदेह दूसरों के हैं तो क्या आपने एक निर्णायक के नाते उन ‘संदेहों’ को खारिज करने की कोशिश की, लेकिन नहीं आपने तो उसमें ‘सच्चे’ संदेह भी देख लिए। यह तो रही आपकी नैतिकता।

अब आपकी आलोचना दृष्टि पर भी कुछ बातें कहनी हैं। मैं जैनेंद्र पर लिखे आपके लेख का कायल भी रहा हूं। जैनेंद्र को समझने के लिए इतना सुंदर लेख मैंने और नहीं पढ़ा है, लेकिन कविता की व्याख्या आपने जिस तरह की है, उससे मैं न केवल असहमत हूं, बल्कि उस पर से भरोसा भी उठने लगा है। आपने लिखा है कि बहस ‘अभद्र’ और ‘गरिमाहीन’ न हो, इसलिए आपकी समझ पर प्रश्न नहीं खड़ा कर रहा हूं पर यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि आपके जैसा कविता का इतना बारीक पाठक किस तरह की भूलें करता है। आपने अनिल कुमार सिंह की ‘अयोधया-1991′ कविता के बारे में लिखा है कि उसमें 1992 की भयावहता का जिक्र नहीं है। अगर कविता के शीर्षक में ‘1991′ लिखा है तो उसमें 1992 का जिक्र कैसे संभव है। क्या 1946 में लिखी कहानी में 1947 के विभाजन की भयावहता का जिक्र हो सकता है? यह तो तथ्यात्मक रूप से ही गलत है।

आपने बद्रीनारायण की कविता के बारे में लिखा है कि उसमें एक ही पंक्ति तार्किक है यानी शेष पंक्तियां अतार्किक हैं! जरा बद्रीनारायण की पंक्तियों पर गौर करें ”सांप आएगा तो डंसेगा प्रेमपत्र’, ‘गिध्द उसे पहाड़ पर नोच-नोच खाएगा।’ यानी यह पंक्तियां इसलिए तार्किक नहीं हैं कि सांप तो आदमी को डंसता है, गिध्द तो मांस को नोचता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आप कविता को अभिधा में ही लेते हैं, व्यंजना में नहीं। अगर यह जानते हुए भी कि चंद्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह है, कविता में यह कहा जाए कि ‘अभी भी कोई बुढ़िया चांद पर रहती है’ तो क्या यह तार्किक बात नहीं होगी। वैसे, आपको पता है कि चांद पर पानी मिलने की भी बात कही जा रही है। अगर कोई वहां पहले यह कहता कि अपनी कविता में ‘चांद पर तो पानी है’ तो आप यह कहते कि वैज्ञानिक रूप से तार्किक नहीं है। साहित्य केवल तर्कों से नहीं चलता। वह साइंस या सोशल साइंस नहीं है। उसमें कल्पना, व्यंजना, फंतासी, अतिरंजना सबका पुट होता है। कवि की दृष्टि में एक वैज्ञानिक बोधा होना चाहिए। आपने महज ‘तार्किकता’ के आधार पर पूरी कविता खारिज कर दी। आपने कविता के कथ्य पर कोई बात नहीं की।

आपकी भूमिका में कविता के कथ्य पर बात नहीं के बराबर है। पिछले तीस साल में भूमंडलीकरण और मीडिया तथा सूचना के विस्फोट ने किस तरह भारत ही नहीं दुनिया को बदला है, उसका कोई विश्लेषण आपकी भूमिका में नहीं है। क्या इन चीजों का इन कवियों की कविता पर कोई असर पड़ा है? इसका कोई विश्लेषण आपकी भूमिका में नहीं है। आपने कविता की भाषा, शिल्प और तकनीकी पक्ष पर ही ज्यादा बातचीत की है। मुझे तो संदेह होता है कि आपकी समीक्षा कहीं कलावादी तो नहीं। आपने कविता की राजनीति की बात हर कवियों के संदर्भ में नहीं की है। आपने संजय चतुर्वेदी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि उन्होंने माक्र्सवादी-जनवादी खेमों के नैतिक द्दास के प्रति क्रोध एवं घृणा को एक स्थाई या दीर्घावधि काव्य प्रेरणा बना लिया है। लेकिन क्या यह स्थाई भाव वामपंथी आंदोलन के ठहराव के कारण नहीं हैं। ‘सिंगुर’, ‘नंदीग्राम’ या ‘लालगढ़’ की घटनाएं क्या कहती हैं पर आपने इन घटनाओं का कोई जिक्र नहीं किया है। इन कवियों की कविताओं के संदर्भ में उन्हें नहीं देखा है। आपने बोधिसत्व की ‘पागल दास’ पर यह सवाल किया है कि कवि ने अपनी कविता में यह नहीं बताया है कि दूसरे पागल दास की हत्या किसने की और वह कौन से अंजाम की बात कर रहा था। अयोधया की पृष्ठभूमि में लिखी गई इस कविता में जाहिर है पागलदास धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए जल रहे थे और सांप्रदायिक ताकतों ने उनकी हत्या की। क्या यह लिखने से कि ‘पागल दास’ की हत्या कारसेवकों ने की या पागल दास बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए लड़ रहे थे कविता का अर्थ स्पष्ट होता। क्या इन पंक्तियों के बगैर अर्थ नहीं स्पष्ट होता? क्या आप इस कविता को लेख की तरह पढ़ रहे हैं कि आपके सामने सब कुछ स्पष्ट और साफ-साफ लिखा होना चाहिए। आप अलोचक हैं, अगर आप खुद इतना अर्थ नहीं ढूंढ़ेगें तो पाठक को कैसे अर्थ बताएंगे?

दरअसल, आपकी आलोचना शुरू से ही अतिवाद का शिकार रही है। आप किसी को महादेवी के बाद, किसी को इलियट, किसी को अकबर के बाद सबसे बड़ा संस्कृतिकर्मी, किसी को मीरा के बाद बड़ी लेखिका बताते रहे हैं और बाद में खुद उसे खारिज भी करते रहे हैं। आपने इस भूमिका में गगन गिल की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए स्वीकार कर लिया है कि जिसको महादेवी के बाद सबसे बड़ी कवयित्री बताया, उसका हश्र क्या हुआ पर अब यही बात इससे वर्षों पहले ये कुछ लोग कहते रहे तो आपने उनकी बातें नहीं स्वीकारीं।

जिस तरह आपने अपनी भूमिका को समारोह के बाद वितरीत किया, ब्लॉग पर डलवाया, उससे पता चलता है कि आप राग-द्वेष से संचालित हैं और अपनी कुंठाओं का वमन किया है। यह आलोचना नहीं है, लेकिन हम आपकी लालटेन जलाना, टेम्पो से घर बदलते हुए, जो मार खाके रोई नहीं, हिजड़े जैसी कविताओं की तारीफ करते हैं। वे उम्दा कविताएं हैं पर ‘अर्जुन सिंह तथा नेहरू-गांधी से रिश्ते’ पर लिखी गई कविता में आपकी राजनैतिक समझ पर भी हमें गहरी आपति है। आज कोई युवा कवि ऐसी राजनीतिक समझ नहीं रखता। अर्जुन सिंह और राजीव गांधी हमारे आदर्श नहीं हैं। आपको उनसे उम्मीदें हो सकती हैं। हम उनका भी सम्मान करते हैं, पर कम से कम आप भी तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए। इस समाज में और भी लोग साहसिक हैं, पर ‘संपादकीय चूहों की लेड़ी’ हैं और ‘किसी की प्रेमिकाएं भैंस’ जैसी हैं, यह अलोचना की भाषा नहीं है। यह ‘तानाशाही’ और ‘फासीवादी’ अभिव्यक्ति है। आलोचना में भाषा की गरिमा को बनाए रखना जरूरी है अन्यथा वह पीत पत्रकारिता की तरह ‘पीत आलोचना’ हो जाएगी। आप मुझ जैसे अल्पज्ञान लोगों से काफी प्रकांड हैं। विद्या आदमी को विनम्र बनाती है, यह हम लोगों ने पूर्वजों से सीखा है। आप अग्रज पीढ़ी के लेखक हैं। आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप इतने संहारक और हिंसक हैं, यह पता नहीं था। आलोचना ‘हिंसा’ नहीं होती। सर्जना होती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही, मलयज इसके उदाहरण हैं। छोटी मुंह बड़ी बात।

आशा है, आपने जिस अधिकार के तहत भूमिका लिखी है, इस पत्र को भी उसी अधिकार भाव से लेंगे।


आपका

विमल कुमार

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