Wednesday, August 11, 2010

माफी मांगें विष्णु खरे

विभूति विरोध में पूंछ उठाकर  शामिल हुए विष्णु खरे मानते हैं कि पुर्वांचल में हिंदी के हुल्लड़बाज पैदा हुए हैं...ये बातें उन्होने विभूति विरोध की मुहिम चला रहे जनसत्ता अखबार में लिखी है।
जिसे हम हितेंद्र की पोस्ट के नीचे दे रहे हैं हितेंद्र ने इस पोस्ट को विष्णु खरे के विरोध में अपने ब्लॉग पर लिखा है। इस पोस्ट के बाद मो-हल्ला ने इस डर से कि कहीं उसकी घटिया मुहिम तार-तार न ह जाए जमकर (ब्रेकेट में ) चमचई की है। 

विभूति नारायण राय ने ‘छिनाल’ शब्द का आपत्तिजनक प्रयोग किया और उन्हें प्रतिवाद के सामने अंतत: माफी मांगनी पड़ी।
जिसने भी वह इंटरव्यू ठीक से पढ़ा होगा उन्हें यह पता होगा कि उस टिप्पणी का एक संदर्भ था, लेकिन उनके वक्तव्य से युवा लेखिकाओं की भावना को ठेस लगती है इस आरोप के कारण ही राय को प्रतिवाद के सम्मुखीन होना पड़ा।
 इस तर्क को अगर माना जाए तो विष्णु खरे के लेख से तो हिंदी समाज के तमाम लोगों का ही अपमान करने की कोशिश की गयी है। जिस असभ्य तरीके से खरे ने पूर्वांचल के युवा लेखकों के बारे में एक आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया है, उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है।
जब से विभूति नारायण राय का इंटरव्यू आया है, एक मुहिम जनसत्ता से लेकर तमाम जगहों में शुरू हो गयी है। साहित्य में प्रमाद 1 (जनसत्ता 10 अगस्त) के आते-आते यह स्पष्ट हो गया है कि हिंदी के कुछ लोग अपने राग-द्वेष को छुपाकर अपनी कुंठाओं को व्यक्त करने का ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते। विष्णु खरे को एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में जानने वालों के लिए ‘साहित्य में प्रमाद’ प्रसंग ‘छिनाल प्रसंग’ से कम कुत्सित नहीं लगेगा। खरे ने जिस अराजक सोच के साथ विभूति नारायण राय प्रसंग को अपनी कुंठाजनित सोच से जोड़ा है, उसके भौंडे प्रदर्शन को इस लेख में देखकर हिंदी के एक कवि के ऐसे घोर पतन पर रोया ही जा सकता है। जिस भाषा का प्रयोग उन्होंने हिंदी के यशस्वी विद्वानों के लिए किया है, वह उनकी कुंठाओं को सामने लाने वाला है। खरे ने अंग्रेजी की किताबें पढ़ी हैं और यूरोपीय ज्ञान से जुड़ने के बाद बहुत सारे लोगों को अपने देश के लोग गंवार और अपनी भाषा के विद्वान ‘मीडियाकर’ लगने लगते हैं। उन्हें मन ही मन इस बात की कचोट रहती है कि उन्हें हिंदी समाज के लोग वो सब कुछ क्यों नहीं दिलाते, जो अंग्रेजी वालों को इस देश में मिलता है। मेरा अनुमान है कि विष्णु जी रामविलास शर्मा को बहुत ही ‘ओवरैस्टिमेटेड मीडियॉकर’ से ज्यादा नहीं मानते होंगे।  खरे साहब का यह हाल है कि वे ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ तक भी यूनान की कहावत से आते हैं। पता नहीं कैसे खरे इस बात से अपनी बात शुरू करने का दंभ दिखाते हैं कि उन्होंने अपने ‘पूर्वाग्रहों’ के कारण विभूति नारायण राय के सानिध्य से बचे! वह यह बतलाना चाहते हैं कि वे कितने पाक दामन हैं।  हिंदी की सारी दुनिया फंतासियों में जीने वाली, कल्पनातीत अपात्र वेतनमान के साथ यौनशोषण को बढ़ावा देने वाली दिखलाई पडती है। यहीं तक नहीं। वे मानते हैं कि अनेक हिंदी विभागों को पुरुष वेश्याओं के चकले बन गये हैं! हिंदी की अनैतिक साहित्यिक सत्ता प्रकरण पर आने के पहले वे रामचंद्र शुक्ल से लेकर सुधीश पचौरी जैसे “अकादमिक बौने छुटभैयों” का उल्लेख करना नहीं भूलते। खरे साहब इस बात के लिए याद किये जाने चाहिए कि उन्हें इस बात का एहसास है कि “दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदी भाषी समाज यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है।” जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो के ऐसे उदाहरण कम ही मिलेंगे।

मुझे लगता है कि विष्णु खरे की सबसे महत्त्वपूर्ण टिप्पणी यह है – “दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महात्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़कूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है।”

यह कैसे क्षम्य है, इसका जवाब खरे से मांगा जाना चाहिए। यह टिप्पणी कैसे राज ठाकरे की टिप्पणी से गुणात्मक रूप से भिन्न है, और इस टिप्पणी के लिए क्यों विष्णु खरे को माफी नहीं मांगनी चाहिए?


हिंदी का पूर्वांचल कहां है और कौन कौन से लोग खरे को दिखलाई पड़ रहे हैं जो हिंदी के अन्य क्षेत्रों की तुलना में नैतिकता विहीन हैं?

एक बार अगर यह मान भी लिया जाए कि हिंदी के प्रतिष्ठित कवि-पत्रकार विष्णु खरे ने अपनी बात दर्द से अपनों से तीखे ढंग से की है तो भी इन वक्तव्यों के पीछे छिपी कुठाएं हमें यह बतलाती हैं कि वे बौखलाये हुए दंभी दिल्ली के ऐसे बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें इस बात की खबर नहीं है कि ऐसे चालाक-चतुर सठिया गये होने का अंदाजा नहीं है।



हिंदी विभाग और हिंदी से जुडी संस्थाएं सब कुछ ठीक से कर रही हैं, ऐसा मानने वाला कोई नहीं होगा लेकिन क्या हिंदी के जुड़ते ही कोई विभाग, कोई संस्थान, कोई राज्य या कोई बुद्धिजीवी घटिया और नैतिकताविहीन हो जाता है? मैकॉले और नीरद चौधरी की संतानें ऐसा कहें तो हम समझ सकते हैं लेकिन एक ऐसे व्यक्ति की कलम से इस तरह के भाव का आना हमें व्यथित करता है।

जनसत्ता में इस तरह के लेख का छपना बगैर प्रतिवाद के नहीं जाना चाहिए। विभूति नारायण राय के प्रसंग में जनसत्ता के साथ चलकर विष्णु खरे अपने अतिवादी अराजक सोच को भी उसके साथ नत्थी करने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह निंदनीय है। उन्हें माफी मांगनी चाहिए।
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लेखक होने के वहम ने इस कुलपति की सनक बढ़ा दी है
-विष्णु खरे
(जसत्ता में विष्णु खरे के लेख की पहली किस्त)


हममें से लगभग हर एक के साथ ऐसा होता है कि हम कुछ विचारों, वस्तुओं और व्यक्तियों को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते। ये पूर्वग्रह कभी सकारण होते हैं और कभी नितांत निरंकुश, जिनके लिए उर्दू में ‘बुग्ज-ए-लिल्लाही’ जैसा खूबसूरत पद है। हमें कुछ लोगों का जिक्र करने, उन्हें देखने, उनके साथ उठने-बैठने-फोटो खिंचाने, उन्हें अपने घर की दहलीज पर फटकने देने की कल्पना मात्र से घिन आने लगती है। यह खयाल भी हमारा इलाज नहीं कर पाता कि कुछ दूसरे हमजिंस हमारे बारे में भी ऐसा ही सोचते होंगे। बुग्ज की रौनक इसी में है।




‘छिनाल’-ख्याति के विभूति नारायण राय को ही लें। मेरे जानते उन्होंने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है। उलटे एक बार जब वे किसी वामपंथी सम्मेलन में जा रहे थे, जिसमें मैं भी आमंत्रित था पर अपनी जेब से यात्रा-व्यय नहीं देना चाहता था, तो आयोजक ने मुझसे कहा था कि राय प्रथम श्रेणी में आ रहे हैं और मुझे अपने साथ निष्कंटक मुफ्त में ला सकते हैं। फिर जब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए तो वर्धा के एक विराट लेखक-सम्मेलन में उन्होंने मुझे निमंत्रणीय समझा। अपने पूर्वग्रहों के कारण दोनों बार मैं उनके सान्निध्य से बचा।



उन्हें मैं कतई उल्लेखनीय लेखक नहीं मानता था और हाल ही में जब उनकी एक प्रेत-प्रेम कथा में यह पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास 1909 में आना शुरू हो चुके थे तो मेरी यह बदगुमानी पुख्ता हो गयी कि वे मात्र अपाठ्य नहीं, अपढ़ भी हैं। उनके आजीवन संस्थापन-संपादन में निकल रही एक पत्रिका उनके मामूली औसत मंझोलेपन का उन्नतोदर आईना है और उनके संरक्षण में उनके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की जा रही तीनों पत्रिकाएं अधिकांशत: नामाकूल संपादकों के जरिये हिंदी पर नाजिल हैं, हालांकि उनमें से एक में मेरी कुछ शंकास्पद कविताओं के अन्यत्र प्रकाशित शोचनीय अंग्रेजी अनुवाद दोबारा छपे हैं।



यह सोचना भ्रामक और गलत होगा कि जो ख्याति विभूति नारायण ने ‘छिनाल’ के इस्तेमाल से हासिल की है, वह नयी है। उनके वर्धा कुलपतित्व (‘पतित’ के साथ अगर श्लेष लगे तो वह अनभिप्रेत समझा जाए) के पहले भी उन्हें लेकर अनेक अनर्गल किंवदंतियां थीं जिनका संकेत भी देना भारतीय दंड संहिता की मानहानि-संबंधित धाराओं को आकृष्ट कर लेगा; हालांकि उन्हें लेकर मुद्रणेतर माध्यमों में जो कुछ कहा जा रहा है, उस पर अगर वे अदालत गये तो उन्हें अपना शेष जीवन वकीलों के चैंबरों के पास पोर्टा कैबिन सरीखे किसी ढांचे में रह कर बिताना होगा।



गनीमत यह है कि हिंदी लेखिकाओं के लिए उन्होंने ‘छिनाल’ शब्द कहा ही नहीं है, उसे छपवाया भी है, उस पर बावेला मचने पर लोकभाषाओं और असहाय प्रेमचंद के हवालों से उसके इस्तेमाल का बचाव किया है – यानी उसे कबूल किया है – और अंत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय स्तर पर एक खेले-खाये नौकरशाह की तरह सरकारी यदिवादी मुआफी भी मांग ली है। अपने कायर मगर चालाक त्वचारक्षण में कपिल सिब्बल और विभूति नारायण की मिलीभगत कामयाब रही – लाठी भी नहीं टूटी और शास्त्री भवन की इमारत खतरनाक, कुपित सर्पिणियों से खाली करवा ली गयी।



इसे क्या कहा जाए – ‘एंटी क्लाइमैक्स’, ‘इंटर्वल’, ‘हैपी एंडिंग’, ‘ट्रेजडी’, ‘फार्स’ या ‘बेकेट-ग्रोतोव्स्की-प्रसादांत’? क्या यह मसला सिर्फ एक बदजुबान, बददिमाग कुलपति-निर्मित-आईपीएस की सार्वजनिक मौखिक-लिखित अशिष्टता का था, जिसे खुद को लेखक-बुद्धिजीवी समझने की खुशफहमी भी है, जिसकी नाबदानी फासिस्ट फूहड़ता को रफा-दफा और दाखिल-दफ्तर कर दिया गया है?



इस मामले को ‘विभूति नारायण बनाम हिंदी लेखिकाएं’ मानना सिर्फ आंशिक रूप से सही होगा। हम इस अस्तित्ववादी बहस में यहां नहीं पड़ना चाहते कि तमाम महानतम विचारों, आस्थाओं और व्यक्तित्वों के बावजूद मानवता लगातार एक आत्महंता पतन का वरण ही क्यों करने पर अभिशप्त दीखती है, लेकिन यह एक कटु, निर्मम सत्य है कि समूचे भारत के सुकूत के बीच हिंदीभाषी समाज, उसकी संस्कृति(यों), हिंदी भाषा और साहित्य की उत्तरोत्तर अवनति और सड़न अब शायद दुर्निवार और लाइलाज है – बल्कि यह तक कहा जा सकता है कि दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदीभाषी समाज, यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी, जिम्मेदार और कुसूरवार हैं।



प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, मुद्रित समाचार जगत, अकादेमियां, प्रकाशक, पुस्तकखरीद संस्थाएं, संस्कृति संसार, केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के मंत्रालय और विभाग, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका – जहां भी हिंदी में या हिंदी का काम हो या नहीं हो रहा है, वहां के सारे हिंदी-उत्तरदायी इसके अपराधी हैं। हिंदीभाषी निम्न-उच्च और मध्यवर्ग भी इसके लिए कम दोषी नहीं।



यह मैं मानता हूं कि सर्जनात्मक साहित्य में कभी-कभी कथित अश्लील भाषा और चित्रण के बगैर लेखक का काम चल नहीं सकता, हालांकि उनके बिना भी सार्थक साहित्य लिखा ही जा रहा है। लेकिन गैर-रचनात्मक लेखन में लेखक को उससे बचना चाहिए, विशेषत: जब वह किन्हीं व्यक्तियों और समूहों को लेकर अपनी कोई धारणा व्यक्त कर रहा हो।



यह सही है कि विभूति नारायण ने अपना अधिकांश कार्यकाल एक ऐसे महकमे में काटा है जिसमें अश्लीलतम गालियां देना और सुनना पेशे का अनिवार्य और स्पृहणीय अंग है। लेकिन अगर एक ओर आपको यह भ्रम हो कि आप एक वाम समर्थक-समर्थित लेखक हैं – देखिए कि जन संस्कृति मंच ने उन्हें लेकर कैसे दो परस्पर-विरोधी जैसे बयान जारी किये हैं, जिनमें से एक को जाली बताया गया था – और दूसरी ओर गांधीजी (जिनके दुर्भाग्य का पारावार नजर नहीं आता) के नाम पर खोले गये हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, तो आपको हिंदी को लेकर ‘बा मुहम्मद होशियार’ जैसा लौह-नियम जागते-सोते याद रखना चाहिए।



लेकिन, ‘जिन्हें देवता बर्बाद करना चाहते हैं पहले उन्हें विकल मस्तिष्क कर देते हैं’ वाली यूनानी कहावत के मुताबिक हमारे कुलपति का दिमाग लेखक होने के उनके वहम और वामपंथियों के अपनी वर्दी की कई जेबों में होने की खुशफहमी ने तो खराब कर ही दिया होगा, हिंदी कुलपति होने की सत्ता के कारण राष्ट्रव्यापी अधिकांश हिंदी प्राध्यापक-लेखक-प्रकाशक गुलामी जो उन्हें अनायास प्राप्त हो गयी उसने उन्हें विभूति-विभ्रम (‘डिल्यूजंस ऑफ ग्रैंड्योर’) का आखेट बना डाला। हम अधिकांश हिंदी विभागों की गलाजतों को जानते ही हैं। स्वयं गांधी विश्वविद्यालय में सैकड़ों पद और छात्रवृत्तियां हैं, एमलिट, एमफिल, पीएचडी के निबंध-प्रबंध हैं, अपने अपने रुझान के उपयुक्त छात्र-छात्राएं हैं, लेखक-लेखिकाओं को बुलाने के लिए सारे बहाने और बहकावे-बहलावे हैं।



आप ‘एक्सपर्ट’ बन कर किस-किस को कहां-कहां कैसे-कैसे सेलेक्ट और रिजेक्ट नहीं कर सकते। प्रकाशक-मुद्रक-संपादक-कागज व्यापारी आपके बूट चूमने लगते हैं। हिंदी की सारी दुनिया आपके लोलुप लोचनों में छिनाल से कम नहीं रह जाती। हिंदी का प्राय: हर व्याख्याता, रीडर या प्रोफेसर इन्हीं फंतासियों में जीता है और उन्हें चरितार्थ करने में सक्रिय रहता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब जो कल्पनातीत और अधिकांशत: अपात्र वेतनमान लागू हैं, उनके कारण प्राध्यापक वर्ग में हिंदी के शुद्ध मसिजीवी लेखकों के प्रति हिकारत और बढ़ गयी है। सभी जानते हैं कि हिंदी विभागों में कई दशकों से यौन-शोषण चल रहा है, जो अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है।



हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में ‘पुरुष-वेश्या’ ही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही ‘अक्षतयोना’ पुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से ‘कामायनी’ न पढ़ा कर ‘कुट्टनीमतं काव्यं’ पढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।



देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है – वहां यही लोग तो ‘एक्सपर्ट’ बन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सूडो-नामवर सिंह होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाला एक हिंदी प्रोफेसर केंद्रीय सेवाओं के कूड़ेदान के लिए किस कचरे का योगदान कर रहा होगा। हिंदी की साहित्यिक संस्कृति का एक अनूठा आयाम यह भी है कि प्राय: सभी लेखक और प्रकाशक आपस में मित्र या शत्रु हैं, इन दोस्तियों और दुश्मनियों में भले ही बराबरियां न हों, ये संबंध अकादमिक दुनिया तक भी पहुंचते हैं और लगातार बदलते रहते हैं। इनमें एक वर्णाश्रम धर्म और वर्ग विभाजन भी है, नवधा-भक्तियां हैं, संरक्षकत्व, अभिभावकत्व, मुसाहिबी, चापलूसी, दासता आदि जटिल तत्त्व शामिल हैं। इसमें छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों की भूमिकाएं भी हैं, मगर बड़ी पत्रिकाओं के प्रकाशकों संपादकों के पास अधिक सत्ता है।



यह इसलिए है कि यों तो अपना नाम और फोटो छपा देखने की आकांक्षा पिछले साठ वर्षों से ही देखी जा रही है, पर लेखकों में फिर भी कुछ हया, आत्मसम्मान और स्व-मूल्यांकन के जज्बात बाकी थे। दुर्भाग्यवश अब पिछले शायद दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। ‘अकविता आंदोलन’ के बाद साहित्यिक मूल्यों का ऐसा पतन सिर्फ इधर की कहानी और कविता दोनों में देखा जा रहा है। पत्रिका-जगत में ऐसे सरगनाओं जैसे संपादकों का वर्चस्व है, जो अपने-अपने लेखक-गिरोह तैयार करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के इक्कीसवीं सदी के संस्करणों का निर्लज्ज इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिभाशाली, संयमी, विवेकवान और साहसी युवा, प्रौढ़ और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएं बचे ही नहीं, मगर ग्रेशम के नियम के साहित्यिक संस्करण में खोटे सिक्कों ने वास्तविकों को बचाव-मुद्रा में ला दिया है जो अंतत: श्रेयस्कर ही है।



विभूति नारायण का छिनाल-प्रकरण अकादमिक-लेखकीय-संपादकीय मिलीभगत (‘नैक्सस’) के बिना संभव न होता। ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक रवींद्र कालिया विभूति नारायण से कम मीडिऑकर लेखक हैं या अधिक, यह बहस का मसला नहीं है, लेकिन दोनों मिल कर एक अनैतिक साहित्यिक-सत्ता का प्रदर्शन करना चाहते थे। ‘ज्ञानोदय’ दरअसल कितना छपता है इसका कुछ अंदाज हमें है; लेकिन बेशक कालिया ने उसमें और ज्ञानपीठ प्रकाशन में अपनी ‘वल्गर’ प्रतिभा से कुछ अस्थायी प्राण जरूर फूंके हैं। हम यह भी जानते हैं कि ज्ञानपीठ का प्रबंधन मूलत: राजनीतिक हवामुर्ग रहा है। कालिया अपने कांग्रेसी रिश्तों की वजह से ज्ञानपीठ में हैं, यह न तो ठीक-ठीक जाना जा सकता है और न उसकी जरूरत है।



मुझे शांतिप्रसाद-रमा जैन और लक्ष्मीचंद्र जैन के युग का ज्ञानोदय और ज्ञानपीठ याद हैं – वर्तमान निजाम को उसकी शर्मनाक अवनति ही कहा जा सकता है। लेकिन हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का उत्थान और पतन मुंबई के ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ से होता हुआ नया ज्ञानोदय तक देखा जा सकता है। कुछ संपादकों ने मुख्यत: कहानी को स्त्रियों का शिकार करने की विधा में बदल दिया और रवींद्र कालिया उसी परंपरा की सड़ांध-भरी तलछट हैं। उन्हें दो बड़ी सुविधाएं हैं; उनके पास एक पत्रिका है, एक प्रकाशन-गृह है जिनके प्रबंधक साहित्य को सिर्फ बिक्री के तराजू में तौलना जानते हैं और उन्हें एक ऐसा लेखक-समाज मिला है जो अधिकांशत: किसी भी नैतिक कीमत पर सिर्फ छपना चाहता है।



साहित्यिक पत्रकारिता में बाजारवाद ‘धर्मयुग-सारिका’ से शुरू हुआ था जो अब अन्य पत्रिकाओं के अलावा ‘ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ’ में पूर्ण-कुसुमित महारोग का विकराल रूप ले चुका है। अपनी सत्ता और सफलता से राय-कालिया गठबंधन इतना प्रमादग्रस्त हो गया था कि उसने सोचा कि वह हिंदी समाज में ‘छिनाल’ को भी निगलवा लेगा, पर वह उसके गले की हड्डी बन गया।

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