Wednesday, August 4, 2010
नया ज्ञानोदय वाला विवादित इंटरव्यू
मोहल्ला के चंडुखाने में हर सेकेंड की रिपोर्ट हो रही है। तमतमाए हुए नकली नारी उद्धारक हाय तौबा मचा रहे हैं। उन्हे वाक्य नहीं शब्दों में घृणा दिखाई दे रही है। लेकिन अब उस साक्षात्कार को भी जाना जाय कि आखिर इसमें था क्या जो इतना बवेला मचा।
नया ज्ञानोदय- बेवफाई सुपर विशेषांक- पृष्ठ- 31-33 से साभार
साक्षात्कार
सुपरिचित उपन्यासकार विभूतिनारायण राय से राकेश मिश्र की बातचीत
राय साहब, नया ज्ञानोदय प्रेम के बाद अब बेवफाई पर विशेषांक निकालने जा रहा है, क्या प्रतिक्रिया है आपकी?
- काफी महत्त्वपूर्ण संपादक हैं रवीन्द्र कालिया। प्रेम पर निकाले गए उनके सभी अंकों की आज तक चर्चा है। इस तरह के विषय केन्द्रित विशेषांकों का सबसे बड़ा लाभ है कि न सिर्फ हिन्दी में बल्कि कई भाषाओं में लिखी गई इस तरह की रचनाएं एक साथ उपलब्ध् हो जाती हैं। साथ ही किसी विषय को लेकर विभिन्न पीढ़ियों का क्या नज़रिया है यह भी सिलसिलेवार तरीके से सामने आ जाता है। साहित्य के गम्भीर पाठकों, अध्येताओं के लिए ये अंक जरूरी हो जाते हैं। अब जब उन्होंने बेवफाई पर अंक निकालने की योजना बनायी है तो वह भी निश्चित तौर पर एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग होगा।
लेकिन आलोचना भी खूब हुई थी उन अंकों की, खासकर कुछ लोगों ने कहा कि इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर प्रेम और बेवफाई...
- हिन्दी में विध्न सन्तोषियों की कमी नहीं है। आखिर यदि वे इतने ही महत्त्वहीन अंक थे तो इतने बड़े पैमाने पर लोकप्रिय क्यों हुए? मुझे याद नहीं कि कालिया जी के संपादन को छोड़कर किसी पत्रिाका ने ऐसा चमत्कार किया हो कि उसके आठ-आठ पुनर्मुद्रण हुए हों। कुछ तो रचनात्मक कुंठा भी होती है। जैसे उन विशेषांकों के बाद मनोज रूपड़ा की एक चलताउफ सी कहानी किसी अंक में आयी थी, यह एक किस्म का अतिवाद ही है आप इतने बड़े पैमाने पर लिख जा रहे विषय का अर्थहीन ढंग से मजाक उड़ाएं। पिफर लोगों को किसने रोका है कि वे प्रेम या बेवफाई को छोड़कर अन्य विषयों पर कहानी लिखें या विशेषांक न निकालें।
तो बेवफाई को आप कैसे परिभाषित करेंगे?
- बेवफाई की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती। इसे समझने के लिए धर्म, वर्चस्व और पितृसत्ता जैसी अवधारणाओं को भी समझना होगा। यह इस उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति है जिसके तहत स्त्री या पुरुष एक-दूसरे के शरीर पर अविभाजित अधिकार चाहते हैं। प्रेमी युगल यह मानते हैं कि इस अिधकार से वंचित होना या एक-दूसरे से जुदा होना दुनिया की सबसे बड़ी विपत्ति है और इससे बचने के लिए वे मृत्यु तक का वरण करने के लिए तैयार हो सकते हैं। आधुनिक धर्मों का उदय ही पितृसत्ता के मजबूत होने के दौर में हुआ है। इसीलिए सभी धर्मों का ईश्वर पुरुष है। धर्मों ने स्त्री यौनिकता को परिभाषित और नियंत्रित किया है। उन्होंने स्त्री के शरीर की एक वर्चस्ववादी व्याख्या की है। इससे बेवफाई एकतरपफा होकर रह गई है। मर्दवादी समाज मुख्य रूप से स्त्रियों को बेवफा मानता है। सारा साहित्य स्त्रिायों की बेवफाई से भरा हुआ है जबकि अपने प्रिय पर एकाधिकार की चाहना स्त्री-पुरुष दोनों की हो सकती है और दोनों में ही प्रिय की नज़र बचाकर दूसरे को हासिल करने की इच्छा हो सकती है।
देखा जाए तो, बेवफाई एक नकारात्मक पद है लेकिन इसका पाठ हमेशा रोमांटिक या लुत्फ देने वाला क्यों होता है?
-वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। पिफर यहां लुत्फ लेने वाला कौन है मुख्य रूप से पुरुष ! व्यक्तिगत संपत्ति और आय के स्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचाकर आनन्द ले सकता है, उन्हें रखैल बना सकता है, बेवफा के तौर पर उनकी कल्पना कर उन्हें अपने फैंटेसी में शामिल कर सकता है। पर जैसे-जैसे स्त्रियां व्यक्तिगत संपत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ़ रही है।
हिन्दी समाज से कुछ उदाहरण....
-क्यों नहीं। पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक `कितने बिस्तरों पर कितनी बार´ हो सकता था। इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे। दरअसल, इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं। मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता। आखिर पहले पुरुष चटखारे लेकर बेवफाई का आनन्द उठाता था, अब अगर स्त्रियां उठा रही हैं तो हाय तौबा क्या मचाना। बिना जजमेंटल हुए मैं यह यहां जरूर कहूंगा कि यहां औरतें वही गलतियां कर रही हैं जो पुरुषों ने की थी। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियां भी आकर्षण, प्रेम और आस्था के खूबसूरत सम्बंध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस संभावना को बाधित कर रही है जिसके तहत देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाया।
क्या बेवफाई का जेण्डर विमर्श सम्भव है एक पुरुष और एक स्त्री के बेवफा होने में क्या अन्तर है?
-मैंने ऊपर निवेदन किया है कि बेवफाई को समझने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति, धर्म या पितृसत्ता जैसी संस्थाओं को ध्यान में रखना होगा। एंगेल्स की पुस्तक `परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति´ से बार-बार उद्धृत किया जाने वाला प्रसंग जिसमें एंगेल्स इस दलील को खारिज करते हैं कि लंबे नीरस दाम्पत्य से उत्कट प्रेम पगा एक ही चुंबन बेहतर है और कहते हैं कि यह तर्क पुरुष के पक्ष में जाता है। जब तक संपत्ति और उत्पादन के स्रोतों पर स्त्री-पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा पुरुष इस स्थिति का फायदा स्त्री के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा। असमानता समाप्त होने तक बेवफाई का जेण्डर विमर्श न सिर्फ सम्भव है बल्कि होना ही चाहिए।
हिन्दी साहित्य में तलाशना हो तो पुरुष के बेवफाई विमर्श का सबसे खराब उदाहरण `नमो अंधकारम्´ नामक कहानी है। लोग जानते हैं कि कहानी इलाहाबाद के एक मार्क्सवादी रचनाकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी। उसमें बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे हैं। इस कहानी के लेखक के एक सहकर्मी महिला के साथ सालों ऐलानिया रागात्मक सम्बंध् रह हैं। उन्होंने कभी छिपाया नहीं और शील्ड की तरह लेकर उसे घूमते रहे। पर उस कहानी में वह औरत किसी निम्पफोमेनियाक कुतिया की तरह आती है। लेखक ऐसे पुरुष का प्रतिनिधि चरित्रा है जिसके लिए स्त्री कमतर और शरीर से अधिक कुछ नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं कि अगर उस औरत ने इस पुरुष लेखक की बेवफाई की कहानी लिखी होती तो क्या वह भी इतने ही निर्मम तटस्थता और खिल्ली उड़ाउ ढंग से लिख पाती?
बेवफाई कहीं न कहीं एक ताकत का भी विमर्श है। क्या महिला लेखकों द्वारा बड़ी संख्या में अपनी यौन स्वतंत्रता को स्वीकारना एक किस्म का पावर डिसकोर्स ही है ?
-सही है कि बेवफाई पावर डिसकोर्स है। आप भारतीय समाज को देंखे! अर्ध सामन्ती- अर्धऔपनिवेशिक समाज- काफी हद तक पितृसत्तात्मक है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा के बढ़ते अवसर या मूल्यों के स्तर पर हो रही उथल-पुथल ने स्त्री पुरुषों को ज्यादा घुलने-मिलने के अवसर प्रदान किए हैं। पर क्या ज्यादा अवसरों ने ज्यादा लोकतांत्रिक संबंध भी विकसित किए हैं? उत्तर होगा- नहीं। पुरुष के लिए स्त्री आज भी किसी ट्राफी की तरह है। अपने मित्रों के साथ रस ले-लेकर अपनी महिला मित्रों का बखान करते पुरुष आपको अकसर मिल जाएंगे। रोज ही अखबारों में महिला मित्रों की वीडियो क्लिपिंग बना कर बांटते हुए पुरुषों की खबरें पढ़ने को मिलेंगी। अभी हाल में मेरे विश्वविद्यालय की कुछ लड़कियों ने मांग की कि उन्हें लड़कों के छात्रावासों में रुकने की इजाजत दी जाए। मेरी राय स्पष्ट थी कि अभी समाज में लड़कों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है कि वे लड़कियों को बराबरी का साथी समझें। गैरबराबरी पर आधरित कोई भी संबंध अपने साथी की निजता और भावनात्मक संप्रभुता का सम्मान करना नहीं सिखाता। हर असपफल सम्बंध एक इमोशनल ट्रॉमा की तरह होता है जिसका दंश लड़की को ही झेलना पड़ता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्वाभाविक ही है कि स्त्री पुरुष के लिए एक ट्रॉफी की तरह है...जितनी अिधक स्त्रियां उतनी अधिक ट्रॉफियां।
महिला लेखिकाओं द्वारा बड़े पैमाने पर अपनी यौन स्वतन्त्रता को स्वीकारना इसी डिसकोर्स का भाग बनने की इच्छा है। आप ध्यान से देखें- ये सभी लेखिकाएं उस उच्च मध्यवर्ग या उच्च वर्ग से आती हैं जहां उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता अपेक्षाकृत कम है। इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।
पूंजी, तकनीक और बाजार ने मानवीय रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित किया है। ऐसे में यह धारणा आयी है कि लोग बेवफा रहें लेकिन पता नहीं चले। यह कौन सी स्थिति है
-सही है कि बाजार ने तमाम रिश्तों की तरह आज औरत और मर्द के रिश्तों को भी परिभाषित करना शुरू कर दिया है। यह परिभाषा धर्म द्वारा गढ़ी- परिभाषा से न सिर्फ भिन्न है बल्कि उसके द्वारा स्थापित नैतिकता का अकसर चुनौती देती नज़र आती है। आप पाएंगे कि आज एसएमएस और इंटरनेट उस तरह के सम्बंध विकसित करने में सबसे अधिक मदद करते हैं जिन्हें स्थापित अर्थों में बेवफाई कहते हैं। पर आपके प्रश्न के दूसरे भाग से मैं सहमत नहीं हूं। विवाहेतर रिश्तों को स्वीकार करने का साहस आज बढ़ा है। पहली बार भारत जैसे पारंपरिक समाज में लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ा है। लोग ब्वॉय प्रफेण्ड या गर्ल प्रफेण्ड जैसे रिश्ते स्वीकारने लगे हैं। हां, यह जरूर है कि यह स्थिति उन वर्गों में ही अधिक है जहां स्त्रियां आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं।
क्या कलाकार होना बेवफा होने का लाइसेंस है?
-इसका कोई सरलीकृत उत्तर नहीं हो सकता। कलाकार अन्दर से बेचैन आत्मा होता है। धर्म या स्थापित मूल्यों से निर्धारित रिश्ते उसे बेचैन करते हैं। वह बार-बार अपनी ही बनाई दुनिया को तोड़ता-पफोड़ता है और उसे नये सिरे से रचता-बसता है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उसकी अतृप्ति उसे नये-नये भावनात्मक सम्बंध् तलाशने के लिए उकसाती है। कलाकार के पास अभिव्यक्ति के औजार भी होते हैं इसलिए वह अपनी बेवफाई, जिसमें कई बार दूसरे को धोखा देकर छलने के तत्व भी होते हैं, को बड़ी चालाकी से जस्टिपफाई कर लेता है। साधारण व्यक्ति पकड़े जाने पर जहां हकलाते गले और पफक पड़े चेहरे से अपनी कमजोर सपफाई पेश करने की कोशिश करता है वहीं कलाकार बड़ी दुष्टता के साथ छल सकने में समर्थ तर्क गढ़ लेता है। अकसर आप पाएंगे कि दूसरों को धोखा देने वाले तर्कों को रखते-रखते वह स्वयं उनमें यकीन करने लगता है। यदि एक बार पिफर हिन्दी से ही उदाहरण तलाशने हों तो राजेन्द्र यादव की आत्मकथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राजेन्द्र अपनी मक्कारी को साबित करने के लिए जिस झूठ और पफरेब का सहारा लेते हैं, आप पढ़ते हुए पाएंगे कि मन्नू भण्डारी को कनविन्स करते-करते वे खुद विश्वास करने लगते हैं कि अपने साथी से छल-कपट लेखक के रूप में उनका अिधकार है।
यह सही कहा आपने, दरअसल हिन्दी में बेवफाई की सुसंगत और योजनाब( शुरुआत नई कहानी की कहानियों और कहानीकारों से ही दिखती है।
-हां, लेकिन उसके ठोस कारण भी हैं। कहानी, उपन्यास, की जिस वास्तविक जमीन को छोड़कर ये मध्यवर्ग की कुंठाओं, त्रासदियों और अकेलेपन को सैद्दांतिक स्वरूप देने में मसरूफ थे, उसमें तो ऐसी स्थितियां पैदा होनी ही थी। यह अकारण नहीं कि ये विख्यात महारथी अपने जीवन काल में ही अपनी कहानियों से ज्यादा अपने (कुद्ध कृत्यों के लिए मशहूर हो चले थे। राजेन्द्र जी तो अपनी मशहूरी अभी तक ढो रहे हैं।
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