घुड़मक्खी ने फिर मुंह खोला है, इस आलोचक की हकीकत विमल कुमार जैसे लोगों ने पहले पहचान ली थी करीब एक साल पहले लिखे गए खुले पत्र को पढ़िए। साहित्य के खेल में माहिर इस शख्स की हकीकत साफ हो जाएगी।
विष्णु खरे के नाम खुला पत्र
November 16th, 2009
सम्माननीय विष्णु जी,
उर्वर-प्रदेश-3 के प्रकाशन के बाद आपसे टेलीफोन पर कई बार संपर्क करने की जब कोशिश विफल हो गई तब यह खुला खत लिखने का विचार आया। आपको एक एसएमएस भी भेजा जिसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। इस पत्र को लिखने का मकसद सिर्फ इतना है कि आपने उर्वर प्रदेश की भूमिका के बतौर जो प्रश्न खड़े किए हैं, उनका जवाब यहां दिया जा सके। मैं आपकी तरह बहुपठित और सुविज्ञ नहीं हूं और न ही आपकी तरह काल-सृजन में निष्णात हूं पर जिस तरह आपको अपनी बात कहने का अधिकार है, उसी तरह मुझे भी अपना प्रतिवाद करने का अधिकार है। इसी अधिकार के तहत मैं अपनी आपत्तियों को दर्ज करना चाहता हूं।
बेशक, आपको पुरस्कृत कवियों की आलोचना करने और उनके बारे में निजी राय रखने का अधिकार है। मैं इसके इस अधिकार को चुनौती नहीं देता हूं। मैं तो इसका ध्यान साहित्य और आलोचना की नैतिकता एवं शिष्टता की तरफ दिलाना चाहता हूं। आप भी जानते होंगे, साहित्य कर्म सर्वाधिक गरिमामय कर्म है। साहित्य का मकसद ही भाषा की पवित्रता, गरिमा और संस्कार को बचाना है। इस तरह उसका काम कुछ मूल्यों और आदर्श को बचाना भी है। यह अच्छी बात है कि आप स्पष्टवादी हैं, लेकिन स्पष्टवादी व्यक्ति नैतिक भी होता है। वह अगर दूसरों की अनैतिकता पर प्रश्न खड़ा करता है, तो पहले उसे भी नैतिक मानदंडों पर खरा उतरना चाहिए। आपने चूंकि निर्णायकों, नियामकों और प्राप्तकर्ताओं के नैतिक उत्तरदायित्व का प्रश्न उठाया है। इसलिए मेरा आपसे प्रश्न है कि क्या एक निर्णायक के रूप में आपका यह नैतिक उत्तरदायित्व बनता है कि आप जिस पुस्तक की भूमिका लिख रहे हैं, उसमें ही आप कवियों की आलोचना नहीं छिद्रात्वेषण कर रहे हैं और इसको पहले से इसका भान है कि यह विवादास्पद जायजा है। इसका अर्थ यह हुआ कि आपकी भूमिका आपकी ही नजर में विवादास्पद है। अगर कोई आपकी आलोचना करते हुए ‘विवादास्पद जायजा’ बताता तो बात समझ में आती पर आपने खुद अपनी भूमिका को पाठकों के बीच जाने से पहले ही विवादास्पद करार दिया।
इतना ही नहीं, अगर आपको निर्णायकों के अभिमतों पर इतनी ही आपत्ति थी तो आप तीस वर्षों तक क्यों चुप रहे। आप खुद निर्णायक थे और पांचों निर्णायकों के हस्ताक्षर से प्रमाणपत्र मिलते रहे हैं। आपने कभी उन पर हस्ताक्षर करने से मना नहीं किया। भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के जाते, और बीस वर्ष पूरे होने पर भी समारोह हुए, आपने मंच से या कहीं लिखकर इस तरह की कोई आपति दर्ज नहीं की। आपने यह भी लिखा है कि ”हिंदी में व्यामोह और षडयंत्र सिध्दांत का लगभग स्थाई अंत है, सो अलग। इसलिए अन्य पुरस्कारों सहित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार का भी हर वर्ष जाति, प्रदेश, क्षेत्र, बोली, आस्था, विभिन्न किस्मों के अंतरंग संबंधा, रसूख विनिमय आदि के सच्चे-झूठे संदेह किए ‘ए गर्ल इन एवरी पोर्ट’ की तरह ही जाते रहे हैं।” आपने केवल संदेह की बात कही होती तो हम एतराज नहीं करते, पर आपने सच्चे संदेह की बात भी कही है। इस तरह के संदेह सार्वजनिक रूप से कब और कहां व्यक्त किए गए, यह बात हम लोग जानना चाहते हैं। जाहिर है, हर वर्ष संदेह किए जाते रहे तो जब आपने पुरस्कार दिए तो उस वर्ष भी संदेह किए जाते रहे होंगे। चूंकि संदेह सच्चे भी हैं तो क्या आप यह स्वीकार करेंगे कि आपने भी जाति, प्रदेश, क्षेत्र, बोली, आस्था, रसूख विनिमय के आधार पर पुरस्कार दिए। और यह विभिन्न किस्म के अंतरंग संबंध क्या होते हैं, क्या आप ‘विभिन्न किस्म’ शब्द का अर्थ खोलेंगे क्योंकि आजकल धारा-377 की भी बहुत चर्चा है। क्या यह किस्म उल्टी धारा का है? आप कवि हैं। शब्दों के अर्थ बखूबी जानते हैं। उसका ‘पाठ’ और ‘कुपाठ’ भी जानते हैं। शब्दों के इशारे भी समझते हैं। आप इन शब्दों से किस ओर इशारा कराते हैं, हिंदी की दुनिया अच्छी तरह जानती है। आप कितने स्त्री विरोधी हैं कि आपका ध्यान ‘अतरंग संबंधों की तरफ जा रहा है? आपको भूमिका लिखने का दायित्व पुरस्कृत कवियों की कविताओं का विश्लेषण करने के लिए दिया गया था या ‘विभिन्न किस्म के अतरंग संबंधों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए। क्या हिंदी आलोचना इसी तरह के अतरंग संबंधों की ही तलाश करती रहेगी! यह कहां का नैतिक उत्तरदायित्व है।
लेकिन इतने तरह के ‘संदेहों’ की बात करते हुए भी आपको यह पुरस्कार सर्वाधिक प्रतिष्ठित लगता है। अगर ये संदेह दूसरों के हैं तो क्या आपने एक निर्णायक के नाते उन ‘संदेहों’ को खारिज करने की कोशिश की, लेकिन नहीं आपने तो उसमें ‘सच्चे’ संदेह भी देख लिए। यह तो रही आपकी नैतिकता।
अब आपकी आलोचना दृष्टि पर भी कुछ बातें कहनी हैं। मैं जैनेंद्र पर लिखे आपके लेख का कायल भी रहा हूं। जैनेंद्र को समझने के लिए इतना सुंदर लेख मैंने और नहीं पढ़ा है, लेकिन कविता की व्याख्या आपने जिस तरह की है, उससे मैं न केवल असहमत हूं, बल्कि उस पर से भरोसा भी उठने लगा है। आपने लिखा है कि बहस ‘अभद्र’ और ‘गरिमाहीन’ न हो, इसलिए आपकी समझ पर प्रश्न नहीं खड़ा कर रहा हूं पर यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि आपके जैसा कविता का इतना बारीक पाठक किस तरह की भूलें करता है। आपने अनिल कुमार सिंह की ‘अयोधया-1991′ कविता के बारे में लिखा है कि उसमें 1992 की भयावहता का जिक्र नहीं है। अगर कविता के शीर्षक में ‘1991′ लिखा है तो उसमें 1992 का जिक्र कैसे संभव है। क्या 1946 में लिखी कहानी में 1947 के विभाजन की भयावहता का जिक्र हो सकता है? यह तो तथ्यात्मक रूप से ही गलत है।
आपने बद्रीनारायण की कविता के बारे में लिखा है कि उसमें एक ही पंक्ति तार्किक है यानी शेष पंक्तियां अतार्किक हैं! जरा बद्रीनारायण की पंक्तियों पर गौर करें ”सांप आएगा तो डंसेगा प्रेमपत्र’, ‘गिध्द उसे पहाड़ पर नोच-नोच खाएगा।’ यानी यह पंक्तियां इसलिए तार्किक नहीं हैं कि सांप तो आदमी को डंसता है, गिध्द तो मांस को नोचता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आप कविता को अभिधा में ही लेते हैं, व्यंजना में नहीं। अगर यह जानते हुए भी कि चंद्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह है, कविता में यह कहा जाए कि ‘अभी भी कोई बुढ़िया चांद पर रहती है’ तो क्या यह तार्किक बात नहीं होगी। वैसे, आपको पता है कि चांद पर पानी मिलने की भी बात कही जा रही है। अगर कोई वहां पहले यह कहता कि अपनी कविता में ‘चांद पर तो पानी है’ तो आप यह कहते कि वैज्ञानिक रूप से तार्किक नहीं है। साहित्य केवल तर्कों से नहीं चलता। वह साइंस या सोशल साइंस नहीं है। उसमें कल्पना, व्यंजना, फंतासी, अतिरंजना सबका पुट होता है। कवि की दृष्टि में एक वैज्ञानिक बोधा होना चाहिए। आपने महज ‘तार्किकता’ के आधार पर पूरी कविता खारिज कर दी। आपने कविता के कथ्य पर कोई बात नहीं की।
आपकी भूमिका में कविता के कथ्य पर बात नहीं के बराबर है। पिछले तीस साल में भूमंडलीकरण और मीडिया तथा सूचना के विस्फोट ने किस तरह भारत ही नहीं दुनिया को बदला है, उसका कोई विश्लेषण आपकी भूमिका में नहीं है। क्या इन चीजों का इन कवियों की कविता पर कोई असर पड़ा है? इसका कोई विश्लेषण आपकी भूमिका में नहीं है। आपने कविता की भाषा, शिल्प और तकनीकी पक्ष पर ही ज्यादा बातचीत की है। मुझे तो संदेह होता है कि आपकी समीक्षा कहीं कलावादी तो नहीं। आपने कविता की राजनीति की बात हर कवियों के संदर्भ में नहीं की है। आपने संजय चतुर्वेदी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि उन्होंने माक्र्सवादी-जनवादी खेमों के नैतिक द्दास के प्रति क्रोध एवं घृणा को एक स्थाई या दीर्घावधि काव्य प्रेरणा बना लिया है। लेकिन क्या यह स्थाई भाव वामपंथी आंदोलन के ठहराव के कारण नहीं हैं। ‘सिंगुर’, ‘नंदीग्राम’ या ‘लालगढ़’ की घटनाएं क्या कहती हैं पर आपने इन घटनाओं का कोई जिक्र नहीं किया है। इन कवियों की कविताओं के संदर्भ में उन्हें नहीं देखा है। आपने बोधिसत्व की ‘पागल दास’ पर यह सवाल किया है कि कवि ने अपनी कविता में यह नहीं बताया है कि दूसरे पागल दास की हत्या किसने की और वह कौन से अंजाम की बात कर रहा था। अयोधया की पृष्ठभूमि में लिखी गई इस कविता में जाहिर है पागलदास धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए जल रहे थे और सांप्रदायिक ताकतों ने उनकी हत्या की। क्या यह लिखने से कि ‘पागल दास’ की हत्या कारसेवकों ने की या पागल दास बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए लड़ रहे थे कविता का अर्थ स्पष्ट होता। क्या इन पंक्तियों के बगैर अर्थ नहीं स्पष्ट होता? क्या आप इस कविता को लेख की तरह पढ़ रहे हैं कि आपके सामने सब कुछ स्पष्ट और साफ-साफ लिखा होना चाहिए। आप अलोचक हैं, अगर आप खुद इतना अर्थ नहीं ढूंढ़ेगें तो पाठक को कैसे अर्थ बताएंगे?
दरअसल, आपकी आलोचना शुरू से ही अतिवाद का शिकार रही है। आप किसी को महादेवी के बाद, किसी को इलियट, किसी को अकबर के बाद सबसे बड़ा संस्कृतिकर्मी, किसी को मीरा के बाद बड़ी लेखिका बताते रहे हैं और बाद में खुद उसे खारिज भी करते रहे हैं। आपने इस भूमिका में गगन गिल की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए स्वीकार कर लिया है कि जिसको महादेवी के बाद सबसे बड़ी कवयित्री बताया, उसका हश्र क्या हुआ पर अब यही बात इससे वर्षों पहले ये कुछ लोग कहते रहे तो आपने उनकी बातें नहीं स्वीकारीं।
जिस तरह आपने अपनी भूमिका को समारोह के बाद वितरीत किया, ब्लॉग पर डलवाया, उससे पता चलता है कि आप राग-द्वेष से संचालित हैं और अपनी कुंठाओं का वमन किया है। यह आलोचना नहीं है, लेकिन हम आपकी लालटेन जलाना, टेम्पो से घर बदलते हुए, जो मार खाके रोई नहीं, हिजड़े जैसी कविताओं की तारीफ करते हैं। वे उम्दा कविताएं हैं पर ‘अर्जुन सिंह तथा नेहरू-गांधी से रिश्ते’ पर लिखी गई कविता में आपकी राजनैतिक समझ पर भी हमें गहरी आपति है। आज कोई युवा कवि ऐसी राजनीतिक समझ नहीं रखता। अर्जुन सिंह और राजीव गांधी हमारे आदर्श नहीं हैं। आपको उनसे उम्मीदें हो सकती हैं। हम उनका भी सम्मान करते हैं, पर कम से कम आप भी तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए। इस समाज में और भी लोग साहसिक हैं, पर ‘संपादकीय चूहों की लेड़ी’ हैं और ‘किसी की प्रेमिकाएं भैंस’ जैसी हैं, यह अलोचना की भाषा नहीं है। यह ‘तानाशाही’ और ‘फासीवादी’ अभिव्यक्ति है। आलोचना में भाषा की गरिमा को बनाए रखना जरूरी है अन्यथा वह पीत पत्रकारिता की तरह ‘पीत आलोचना’ हो जाएगी। आप मुझ जैसे अल्पज्ञान लोगों से काफी प्रकांड हैं। विद्या आदमी को विनम्र बनाती है, यह हम लोगों ने पूर्वजों से सीखा है। आप अग्रज पीढ़ी के लेखक हैं। आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप इतने संहारक और हिंसक हैं, यह पता नहीं था। आलोचना ‘हिंसा’ नहीं होती। सर्जना होती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही, मलयज इसके उदाहरण हैं। छोटी मुंह बड़ी बात।
आशा है, आपने जिस अधिकार के तहत भूमिका लिखी है, इस पत्र को भी उसी अधिकार भाव से लेंगे।
आपका
विमल कुमार
Wednesday, August 11, 2010
माफी मांगें विष्णु खरे
विभूति विरोध में पूंछ उठाकर शामिल हुए विष्णु खरे मानते हैं कि पुर्वांचल में हिंदी के हुल्लड़बाज पैदा हुए हैं...ये बातें उन्होने विभूति विरोध की मुहिम चला रहे जनसत्ता अखबार में लिखी है।
जिसे हम हितेंद्र की पोस्ट के नीचे दे रहे हैं हितेंद्र ने इस पोस्ट को विष्णु खरे के विरोध में अपने ब्लॉग पर लिखा है। इस पोस्ट के बाद मो-हल्ला ने इस डर से कि कहीं उसकी घटिया मुहिम तार-तार न ह जाए जमकर (ब्रेकेट में ) चमचई की है।
विभूति नारायण राय ने ‘छिनाल’ शब्द का आपत्तिजनक प्रयोग किया और उन्हें प्रतिवाद के सामने अंतत: माफी मांगनी पड़ी।
जिसने भी वह इंटरव्यू ठीक से पढ़ा होगा उन्हें यह पता होगा कि उस टिप्पणी का एक संदर्भ था, लेकिन उनके वक्तव्य से युवा लेखिकाओं की भावना को ठेस लगती है इस आरोप के कारण ही राय को प्रतिवाद के सम्मुखीन होना पड़ा।
इस तर्क को अगर माना जाए तो विष्णु खरे के लेख से तो हिंदी समाज के तमाम लोगों का ही अपमान करने की कोशिश की गयी है। जिस असभ्य तरीके से खरे ने पूर्वांचल के युवा लेखकों के बारे में एक आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया है, उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है।
जब से विभूति नारायण राय का इंटरव्यू आया है, एक मुहिम जनसत्ता से लेकर तमाम जगहों में शुरू हो गयी है। साहित्य में प्रमाद 1 (जनसत्ता 10 अगस्त) के आते-आते यह स्पष्ट हो गया है कि हिंदी के कुछ लोग अपने राग-द्वेष को छुपाकर अपनी कुंठाओं को व्यक्त करने का ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते। विष्णु खरे को एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में जानने वालों के लिए ‘साहित्य में प्रमाद’ प्रसंग ‘छिनाल प्रसंग’ से कम कुत्सित नहीं लगेगा। खरे ने जिस अराजक सोच के साथ विभूति नारायण राय प्रसंग को अपनी कुंठाजनित सोच से जोड़ा है, उसके भौंडे प्रदर्शन को इस लेख में देखकर हिंदी के एक कवि के ऐसे घोर पतन पर रोया ही जा सकता है। जिस भाषा का प्रयोग उन्होंने हिंदी के यशस्वी विद्वानों के लिए किया है, वह उनकी कुंठाओं को सामने लाने वाला है। खरे ने अंग्रेजी की किताबें पढ़ी हैं और यूरोपीय ज्ञान से जुड़ने के बाद बहुत सारे लोगों को अपने देश के लोग गंवार और अपनी भाषा के विद्वान ‘मीडियाकर’ लगने लगते हैं। उन्हें मन ही मन इस बात की कचोट रहती है कि उन्हें हिंदी समाज के लोग वो सब कुछ क्यों नहीं दिलाते, जो अंग्रेजी वालों को इस देश में मिलता है। मेरा अनुमान है कि विष्णु जी रामविलास शर्मा को बहुत ही ‘ओवरैस्टिमेटेड मीडियॉकर’ से ज्यादा नहीं मानते होंगे। खरे साहब का यह हाल है कि वे ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ तक भी यूनान की कहावत से आते हैं। पता नहीं कैसे खरे इस बात से अपनी बात शुरू करने का दंभ दिखाते हैं कि उन्होंने अपने ‘पूर्वाग्रहों’ के कारण विभूति नारायण राय के सानिध्य से बचे! वह यह बतलाना चाहते हैं कि वे कितने पाक दामन हैं। हिंदी की सारी दुनिया फंतासियों में जीने वाली, कल्पनातीत अपात्र वेतनमान के साथ यौनशोषण को बढ़ावा देने वाली दिखलाई पडती है। यहीं तक नहीं। वे मानते हैं कि अनेक हिंदी विभागों को पुरुष वेश्याओं के चकले बन गये हैं! हिंदी की अनैतिक साहित्यिक सत्ता प्रकरण पर आने के पहले वे रामचंद्र शुक्ल से लेकर सुधीश पचौरी जैसे “अकादमिक बौने छुटभैयों” का उल्लेख करना नहीं भूलते। खरे साहब इस बात के लिए याद किये जाने चाहिए कि उन्हें इस बात का एहसास है कि “दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदी भाषी समाज यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है।” जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो के ऐसे उदाहरण कम ही मिलेंगे।
मुझे लगता है कि विष्णु खरे की सबसे महत्त्वपूर्ण टिप्पणी यह है – “दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महात्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़कूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है।”
यह कैसे क्षम्य है, इसका जवाब खरे से मांगा जाना चाहिए। यह टिप्पणी कैसे राज ठाकरे की टिप्पणी से गुणात्मक रूप से भिन्न है, और इस टिप्पणी के लिए क्यों विष्णु खरे को माफी नहीं मांगनी चाहिए?
हिंदी का पूर्वांचल कहां है और कौन कौन से लोग खरे को दिखलाई पड़ रहे हैं जो हिंदी के अन्य क्षेत्रों की तुलना में नैतिकता विहीन हैं?
एक बार अगर यह मान भी लिया जाए कि हिंदी के प्रतिष्ठित कवि-पत्रकार विष्णु खरे ने अपनी बात दर्द से अपनों से तीखे ढंग से की है तो भी इन वक्तव्यों के पीछे छिपी कुठाएं हमें यह बतलाती हैं कि वे बौखलाये हुए दंभी दिल्ली के ऐसे बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें इस बात की खबर नहीं है कि ऐसे चालाक-चतुर सठिया गये होने का अंदाजा नहीं है।
हिंदी विभाग और हिंदी से जुडी संस्थाएं सब कुछ ठीक से कर रही हैं, ऐसा मानने वाला कोई नहीं होगा लेकिन क्या हिंदी के जुड़ते ही कोई विभाग, कोई संस्थान, कोई राज्य या कोई बुद्धिजीवी घटिया और नैतिकताविहीन हो जाता है? मैकॉले और नीरद चौधरी की संतानें ऐसा कहें तो हम समझ सकते हैं लेकिन एक ऐसे व्यक्ति की कलम से इस तरह के भाव का आना हमें व्यथित करता है।
जनसत्ता में इस तरह के लेख का छपना बगैर प्रतिवाद के नहीं जाना चाहिए। विभूति नारायण राय के प्रसंग में जनसत्ता के साथ चलकर विष्णु खरे अपने अतिवादी अराजक सोच को भी उसके साथ नत्थी करने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह निंदनीय है। उन्हें माफी मांगनी चाहिए।
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लेखक होने के वहम ने इस कुलपति की सनक बढ़ा दी है
-विष्णु खरे
(जसत्ता में विष्णु खरे के लेख की पहली किस्त)
हममें से लगभग हर एक के साथ ऐसा होता है कि हम कुछ विचारों, वस्तुओं और व्यक्तियों को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते। ये पूर्वग्रह कभी सकारण होते हैं और कभी नितांत निरंकुश, जिनके लिए उर्दू में ‘बुग्ज-ए-लिल्लाही’ जैसा खूबसूरत पद है। हमें कुछ लोगों का जिक्र करने, उन्हें देखने, उनके साथ उठने-बैठने-फोटो खिंचाने, उन्हें अपने घर की दहलीज पर फटकने देने की कल्पना मात्र से घिन आने लगती है। यह खयाल भी हमारा इलाज नहीं कर पाता कि कुछ दूसरे हमजिंस हमारे बारे में भी ऐसा ही सोचते होंगे। बुग्ज की रौनक इसी में है।
‘छिनाल’-ख्याति के विभूति नारायण राय को ही लें। मेरे जानते उन्होंने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है। उलटे एक बार जब वे किसी वामपंथी सम्मेलन में जा रहे थे, जिसमें मैं भी आमंत्रित था पर अपनी जेब से यात्रा-व्यय नहीं देना चाहता था, तो आयोजक ने मुझसे कहा था कि राय प्रथम श्रेणी में आ रहे हैं और मुझे अपने साथ निष्कंटक मुफ्त में ला सकते हैं। फिर जब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए तो वर्धा के एक विराट लेखक-सम्मेलन में उन्होंने मुझे निमंत्रणीय समझा। अपने पूर्वग्रहों के कारण दोनों बार मैं उनके सान्निध्य से बचा।
उन्हें मैं कतई उल्लेखनीय लेखक नहीं मानता था और हाल ही में जब उनकी एक प्रेत-प्रेम कथा में यह पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास 1909 में आना शुरू हो चुके थे तो मेरी यह बदगुमानी पुख्ता हो गयी कि वे मात्र अपाठ्य नहीं, अपढ़ भी हैं। उनके आजीवन संस्थापन-संपादन में निकल रही एक पत्रिका उनके मामूली औसत मंझोलेपन का उन्नतोदर आईना है और उनके संरक्षण में उनके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की जा रही तीनों पत्रिकाएं अधिकांशत: नामाकूल संपादकों के जरिये हिंदी पर नाजिल हैं, हालांकि उनमें से एक में मेरी कुछ शंकास्पद कविताओं के अन्यत्र प्रकाशित शोचनीय अंग्रेजी अनुवाद दोबारा छपे हैं।
यह सोचना भ्रामक और गलत होगा कि जो ख्याति विभूति नारायण ने ‘छिनाल’ के इस्तेमाल से हासिल की है, वह नयी है। उनके वर्धा कुलपतित्व (‘पतित’ के साथ अगर श्लेष लगे तो वह अनभिप्रेत समझा जाए) के पहले भी उन्हें लेकर अनेक अनर्गल किंवदंतियां थीं जिनका संकेत भी देना भारतीय दंड संहिता की मानहानि-संबंधित धाराओं को आकृष्ट कर लेगा; हालांकि उन्हें लेकर मुद्रणेतर माध्यमों में जो कुछ कहा जा रहा है, उस पर अगर वे अदालत गये तो उन्हें अपना शेष जीवन वकीलों के चैंबरों के पास पोर्टा कैबिन सरीखे किसी ढांचे में रह कर बिताना होगा।
गनीमत यह है कि हिंदी लेखिकाओं के लिए उन्होंने ‘छिनाल’ शब्द कहा ही नहीं है, उसे छपवाया भी है, उस पर बावेला मचने पर लोकभाषाओं और असहाय प्रेमचंद के हवालों से उसके इस्तेमाल का बचाव किया है – यानी उसे कबूल किया है – और अंत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय स्तर पर एक खेले-खाये नौकरशाह की तरह सरकारी यदिवादी मुआफी भी मांग ली है। अपने कायर मगर चालाक त्वचारक्षण में कपिल सिब्बल और विभूति नारायण की मिलीभगत कामयाब रही – लाठी भी नहीं टूटी और शास्त्री भवन की इमारत खतरनाक, कुपित सर्पिणियों से खाली करवा ली गयी।
इसे क्या कहा जाए – ‘एंटी क्लाइमैक्स’, ‘इंटर्वल’, ‘हैपी एंडिंग’, ‘ट्रेजडी’, ‘फार्स’ या ‘बेकेट-ग्रोतोव्स्की-प्रसादांत’? क्या यह मसला सिर्फ एक बदजुबान, बददिमाग कुलपति-निर्मित-आईपीएस की सार्वजनिक मौखिक-लिखित अशिष्टता का था, जिसे खुद को लेखक-बुद्धिजीवी समझने की खुशफहमी भी है, जिसकी नाबदानी फासिस्ट फूहड़ता को रफा-दफा और दाखिल-दफ्तर कर दिया गया है?
इस मामले को ‘विभूति नारायण बनाम हिंदी लेखिकाएं’ मानना सिर्फ आंशिक रूप से सही होगा। हम इस अस्तित्ववादी बहस में यहां नहीं पड़ना चाहते कि तमाम महानतम विचारों, आस्थाओं और व्यक्तित्वों के बावजूद मानवता लगातार एक आत्महंता पतन का वरण ही क्यों करने पर अभिशप्त दीखती है, लेकिन यह एक कटु, निर्मम सत्य है कि समूचे भारत के सुकूत के बीच हिंदीभाषी समाज, उसकी संस्कृति(यों), हिंदी भाषा और साहित्य की उत्तरोत्तर अवनति और सड़न अब शायद दुर्निवार और लाइलाज है – बल्कि यह तक कहा जा सकता है कि दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदीभाषी समाज, यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी, जिम्मेदार और कुसूरवार हैं।
प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, मुद्रित समाचार जगत, अकादेमियां, प्रकाशक, पुस्तकखरीद संस्थाएं, संस्कृति संसार, केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के मंत्रालय और विभाग, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका – जहां भी हिंदी में या हिंदी का काम हो या नहीं हो रहा है, वहां के सारे हिंदी-उत्तरदायी इसके अपराधी हैं। हिंदीभाषी निम्न-उच्च और मध्यवर्ग भी इसके लिए कम दोषी नहीं।
यह मैं मानता हूं कि सर्जनात्मक साहित्य में कभी-कभी कथित अश्लील भाषा और चित्रण के बगैर लेखक का काम चल नहीं सकता, हालांकि उनके बिना भी सार्थक साहित्य लिखा ही जा रहा है। लेकिन गैर-रचनात्मक लेखन में लेखक को उससे बचना चाहिए, विशेषत: जब वह किन्हीं व्यक्तियों और समूहों को लेकर अपनी कोई धारणा व्यक्त कर रहा हो।
यह सही है कि विभूति नारायण ने अपना अधिकांश कार्यकाल एक ऐसे महकमे में काटा है जिसमें अश्लीलतम गालियां देना और सुनना पेशे का अनिवार्य और स्पृहणीय अंग है। लेकिन अगर एक ओर आपको यह भ्रम हो कि आप एक वाम समर्थक-समर्थित लेखक हैं – देखिए कि जन संस्कृति मंच ने उन्हें लेकर कैसे दो परस्पर-विरोधी जैसे बयान जारी किये हैं, जिनमें से एक को जाली बताया गया था – और दूसरी ओर गांधीजी (जिनके दुर्भाग्य का पारावार नजर नहीं आता) के नाम पर खोले गये हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, तो आपको हिंदी को लेकर ‘बा मुहम्मद होशियार’ जैसा लौह-नियम जागते-सोते याद रखना चाहिए।
लेकिन, ‘जिन्हें देवता बर्बाद करना चाहते हैं पहले उन्हें विकल मस्तिष्क कर देते हैं’ वाली यूनानी कहावत के मुताबिक हमारे कुलपति का दिमाग लेखक होने के उनके वहम और वामपंथियों के अपनी वर्दी की कई जेबों में होने की खुशफहमी ने तो खराब कर ही दिया होगा, हिंदी कुलपति होने की सत्ता के कारण राष्ट्रव्यापी अधिकांश हिंदी प्राध्यापक-लेखक-प्रकाशक गुलामी जो उन्हें अनायास प्राप्त हो गयी उसने उन्हें विभूति-विभ्रम (‘डिल्यूजंस ऑफ ग्रैंड्योर’) का आखेट बना डाला। हम अधिकांश हिंदी विभागों की गलाजतों को जानते ही हैं। स्वयं गांधी विश्वविद्यालय में सैकड़ों पद और छात्रवृत्तियां हैं, एमलिट, एमफिल, पीएचडी के निबंध-प्रबंध हैं, अपने अपने रुझान के उपयुक्त छात्र-छात्राएं हैं, लेखक-लेखिकाओं को बुलाने के लिए सारे बहाने और बहकावे-बहलावे हैं।
आप ‘एक्सपर्ट’ बन कर किस-किस को कहां-कहां कैसे-कैसे सेलेक्ट और रिजेक्ट नहीं कर सकते। प्रकाशक-मुद्रक-संपादक-कागज व्यापारी आपके बूट चूमने लगते हैं। हिंदी की सारी दुनिया आपके लोलुप लोचनों में छिनाल से कम नहीं रह जाती। हिंदी का प्राय: हर व्याख्याता, रीडर या प्रोफेसर इन्हीं फंतासियों में जीता है और उन्हें चरितार्थ करने में सक्रिय रहता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब जो कल्पनातीत और अधिकांशत: अपात्र वेतनमान लागू हैं, उनके कारण प्राध्यापक वर्ग में हिंदी के शुद्ध मसिजीवी लेखकों के प्रति हिकारत और बढ़ गयी है। सभी जानते हैं कि हिंदी विभागों में कई दशकों से यौन-शोषण चल रहा है, जो अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है।
हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में ‘पुरुष-वेश्या’ ही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही ‘अक्षतयोना’ पुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से ‘कामायनी’ न पढ़ा कर ‘कुट्टनीमतं काव्यं’ पढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।
देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है – वहां यही लोग तो ‘एक्सपर्ट’ बन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सूडो-नामवर सिंह होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाला एक हिंदी प्रोफेसर केंद्रीय सेवाओं के कूड़ेदान के लिए किस कचरे का योगदान कर रहा होगा। हिंदी की साहित्यिक संस्कृति का एक अनूठा आयाम यह भी है कि प्राय: सभी लेखक और प्रकाशक आपस में मित्र या शत्रु हैं, इन दोस्तियों और दुश्मनियों में भले ही बराबरियां न हों, ये संबंध अकादमिक दुनिया तक भी पहुंचते हैं और लगातार बदलते रहते हैं। इनमें एक वर्णाश्रम धर्म और वर्ग विभाजन भी है, नवधा-भक्तियां हैं, संरक्षकत्व, अभिभावकत्व, मुसाहिबी, चापलूसी, दासता आदि जटिल तत्त्व शामिल हैं। इसमें छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों की भूमिकाएं भी हैं, मगर बड़ी पत्रिकाओं के प्रकाशकों संपादकों के पास अधिक सत्ता है।
यह इसलिए है कि यों तो अपना नाम और फोटो छपा देखने की आकांक्षा पिछले साठ वर्षों से ही देखी जा रही है, पर लेखकों में फिर भी कुछ हया, आत्मसम्मान और स्व-मूल्यांकन के जज्बात बाकी थे। दुर्भाग्यवश अब पिछले शायद दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। ‘अकविता आंदोलन’ के बाद साहित्यिक मूल्यों का ऐसा पतन सिर्फ इधर की कहानी और कविता दोनों में देखा जा रहा है। पत्रिका-जगत में ऐसे सरगनाओं जैसे संपादकों का वर्चस्व है, जो अपने-अपने लेखक-गिरोह तैयार करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के इक्कीसवीं सदी के संस्करणों का निर्लज्ज इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिभाशाली, संयमी, विवेकवान और साहसी युवा, प्रौढ़ और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएं बचे ही नहीं, मगर ग्रेशम के नियम के साहित्यिक संस्करण में खोटे सिक्कों ने वास्तविकों को बचाव-मुद्रा में ला दिया है जो अंतत: श्रेयस्कर ही है।
विभूति नारायण का छिनाल-प्रकरण अकादमिक-लेखकीय-संपादकीय मिलीभगत (‘नैक्सस’) के बिना संभव न होता। ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक रवींद्र कालिया विभूति नारायण से कम मीडिऑकर लेखक हैं या अधिक, यह बहस का मसला नहीं है, लेकिन दोनों मिल कर एक अनैतिक साहित्यिक-सत्ता का प्रदर्शन करना चाहते थे। ‘ज्ञानोदय’ दरअसल कितना छपता है इसका कुछ अंदाज हमें है; लेकिन बेशक कालिया ने उसमें और ज्ञानपीठ प्रकाशन में अपनी ‘वल्गर’ प्रतिभा से कुछ अस्थायी प्राण जरूर फूंके हैं। हम यह भी जानते हैं कि ज्ञानपीठ का प्रबंधन मूलत: राजनीतिक हवामुर्ग रहा है। कालिया अपने कांग्रेसी रिश्तों की वजह से ज्ञानपीठ में हैं, यह न तो ठीक-ठीक जाना जा सकता है और न उसकी जरूरत है।
मुझे शांतिप्रसाद-रमा जैन और लक्ष्मीचंद्र जैन के युग का ज्ञानोदय और ज्ञानपीठ याद हैं – वर्तमान निजाम को उसकी शर्मनाक अवनति ही कहा जा सकता है। लेकिन हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का उत्थान और पतन मुंबई के ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ से होता हुआ नया ज्ञानोदय तक देखा जा सकता है। कुछ संपादकों ने मुख्यत: कहानी को स्त्रियों का शिकार करने की विधा में बदल दिया और रवींद्र कालिया उसी परंपरा की सड़ांध-भरी तलछट हैं। उन्हें दो बड़ी सुविधाएं हैं; उनके पास एक पत्रिका है, एक प्रकाशन-गृह है जिनके प्रबंधक साहित्य को सिर्फ बिक्री के तराजू में तौलना जानते हैं और उन्हें एक ऐसा लेखक-समाज मिला है जो अधिकांशत: किसी भी नैतिक कीमत पर सिर्फ छपना चाहता है।
साहित्यिक पत्रकारिता में बाजारवाद ‘धर्मयुग-सारिका’ से शुरू हुआ था जो अब अन्य पत्रिकाओं के अलावा ‘ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ’ में पूर्ण-कुसुमित महारोग का विकराल रूप ले चुका है। अपनी सत्ता और सफलता से राय-कालिया गठबंधन इतना प्रमादग्रस्त हो गया था कि उसने सोचा कि वह हिंदी समाज में ‘छिनाल’ को भी निगलवा लेगा, पर वह उसके गले की हड्डी बन गया।
जिसे हम हितेंद्र की पोस्ट के नीचे दे रहे हैं हितेंद्र ने इस पोस्ट को विष्णु खरे के विरोध में अपने ब्लॉग पर लिखा है। इस पोस्ट के बाद मो-हल्ला ने इस डर से कि कहीं उसकी घटिया मुहिम तार-तार न ह जाए जमकर (ब्रेकेट में ) चमचई की है।
विभूति नारायण राय ने ‘छिनाल’ शब्द का आपत्तिजनक प्रयोग किया और उन्हें प्रतिवाद के सामने अंतत: माफी मांगनी पड़ी।
जिसने भी वह इंटरव्यू ठीक से पढ़ा होगा उन्हें यह पता होगा कि उस टिप्पणी का एक संदर्भ था, लेकिन उनके वक्तव्य से युवा लेखिकाओं की भावना को ठेस लगती है इस आरोप के कारण ही राय को प्रतिवाद के सम्मुखीन होना पड़ा।
इस तर्क को अगर माना जाए तो विष्णु खरे के लेख से तो हिंदी समाज के तमाम लोगों का ही अपमान करने की कोशिश की गयी है। जिस असभ्य तरीके से खरे ने पूर्वांचल के युवा लेखकों के बारे में एक आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया है, उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है।
जब से विभूति नारायण राय का इंटरव्यू आया है, एक मुहिम जनसत्ता से लेकर तमाम जगहों में शुरू हो गयी है। साहित्य में प्रमाद 1 (जनसत्ता 10 अगस्त) के आते-आते यह स्पष्ट हो गया है कि हिंदी के कुछ लोग अपने राग-द्वेष को छुपाकर अपनी कुंठाओं को व्यक्त करने का ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते। विष्णु खरे को एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में जानने वालों के लिए ‘साहित्य में प्रमाद’ प्रसंग ‘छिनाल प्रसंग’ से कम कुत्सित नहीं लगेगा। खरे ने जिस अराजक सोच के साथ विभूति नारायण राय प्रसंग को अपनी कुंठाजनित सोच से जोड़ा है, उसके भौंडे प्रदर्शन को इस लेख में देखकर हिंदी के एक कवि के ऐसे घोर पतन पर रोया ही जा सकता है। जिस भाषा का प्रयोग उन्होंने हिंदी के यशस्वी विद्वानों के लिए किया है, वह उनकी कुंठाओं को सामने लाने वाला है। खरे ने अंग्रेजी की किताबें पढ़ी हैं और यूरोपीय ज्ञान से जुड़ने के बाद बहुत सारे लोगों को अपने देश के लोग गंवार और अपनी भाषा के विद्वान ‘मीडियाकर’ लगने लगते हैं। उन्हें मन ही मन इस बात की कचोट रहती है कि उन्हें हिंदी समाज के लोग वो सब कुछ क्यों नहीं दिलाते, जो अंग्रेजी वालों को इस देश में मिलता है। मेरा अनुमान है कि विष्णु जी रामविलास शर्मा को बहुत ही ‘ओवरैस्टिमेटेड मीडियॉकर’ से ज्यादा नहीं मानते होंगे। खरे साहब का यह हाल है कि वे ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ तक भी यूनान की कहावत से आते हैं। पता नहीं कैसे खरे इस बात से अपनी बात शुरू करने का दंभ दिखाते हैं कि उन्होंने अपने ‘पूर्वाग्रहों’ के कारण विभूति नारायण राय के सानिध्य से बचे! वह यह बतलाना चाहते हैं कि वे कितने पाक दामन हैं। हिंदी की सारी दुनिया फंतासियों में जीने वाली, कल्पनातीत अपात्र वेतनमान के साथ यौनशोषण को बढ़ावा देने वाली दिखलाई पडती है। यहीं तक नहीं। वे मानते हैं कि अनेक हिंदी विभागों को पुरुष वेश्याओं के चकले बन गये हैं! हिंदी की अनैतिक साहित्यिक सत्ता प्रकरण पर आने के पहले वे रामचंद्र शुक्ल से लेकर सुधीश पचौरी जैसे “अकादमिक बौने छुटभैयों” का उल्लेख करना नहीं भूलते। खरे साहब इस बात के लिए याद किये जाने चाहिए कि उन्हें इस बात का एहसास है कि “दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदी भाषी समाज यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है।” जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो के ऐसे उदाहरण कम ही मिलेंगे।
मुझे लगता है कि विष्णु खरे की सबसे महत्त्वपूर्ण टिप्पणी यह है – “दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महात्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़कूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है।”
यह कैसे क्षम्य है, इसका जवाब खरे से मांगा जाना चाहिए। यह टिप्पणी कैसे राज ठाकरे की टिप्पणी से गुणात्मक रूप से भिन्न है, और इस टिप्पणी के लिए क्यों विष्णु खरे को माफी नहीं मांगनी चाहिए?
हिंदी का पूर्वांचल कहां है और कौन कौन से लोग खरे को दिखलाई पड़ रहे हैं जो हिंदी के अन्य क्षेत्रों की तुलना में नैतिकता विहीन हैं?
एक बार अगर यह मान भी लिया जाए कि हिंदी के प्रतिष्ठित कवि-पत्रकार विष्णु खरे ने अपनी बात दर्द से अपनों से तीखे ढंग से की है तो भी इन वक्तव्यों के पीछे छिपी कुठाएं हमें यह बतलाती हैं कि वे बौखलाये हुए दंभी दिल्ली के ऐसे बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें इस बात की खबर नहीं है कि ऐसे चालाक-चतुर सठिया गये होने का अंदाजा नहीं है।
हिंदी विभाग और हिंदी से जुडी संस्थाएं सब कुछ ठीक से कर रही हैं, ऐसा मानने वाला कोई नहीं होगा लेकिन क्या हिंदी के जुड़ते ही कोई विभाग, कोई संस्थान, कोई राज्य या कोई बुद्धिजीवी घटिया और नैतिकताविहीन हो जाता है? मैकॉले और नीरद चौधरी की संतानें ऐसा कहें तो हम समझ सकते हैं लेकिन एक ऐसे व्यक्ति की कलम से इस तरह के भाव का आना हमें व्यथित करता है।
जनसत्ता में इस तरह के लेख का छपना बगैर प्रतिवाद के नहीं जाना चाहिए। विभूति नारायण राय के प्रसंग में जनसत्ता के साथ चलकर विष्णु खरे अपने अतिवादी अराजक सोच को भी उसके साथ नत्थी करने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह निंदनीय है। उन्हें माफी मांगनी चाहिए।
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लेखक होने के वहम ने इस कुलपति की सनक बढ़ा दी है
-विष्णु खरे
(जसत्ता में विष्णु खरे के लेख की पहली किस्त)
हममें से लगभग हर एक के साथ ऐसा होता है कि हम कुछ विचारों, वस्तुओं और व्यक्तियों को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते। ये पूर्वग्रह कभी सकारण होते हैं और कभी नितांत निरंकुश, जिनके लिए उर्दू में ‘बुग्ज-ए-लिल्लाही’ जैसा खूबसूरत पद है। हमें कुछ लोगों का जिक्र करने, उन्हें देखने, उनके साथ उठने-बैठने-फोटो खिंचाने, उन्हें अपने घर की दहलीज पर फटकने देने की कल्पना मात्र से घिन आने लगती है। यह खयाल भी हमारा इलाज नहीं कर पाता कि कुछ दूसरे हमजिंस हमारे बारे में भी ऐसा ही सोचते होंगे। बुग्ज की रौनक इसी में है।
‘छिनाल’-ख्याति के विभूति नारायण राय को ही लें। मेरे जानते उन्होंने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है। उलटे एक बार जब वे किसी वामपंथी सम्मेलन में जा रहे थे, जिसमें मैं भी आमंत्रित था पर अपनी जेब से यात्रा-व्यय नहीं देना चाहता था, तो आयोजक ने मुझसे कहा था कि राय प्रथम श्रेणी में आ रहे हैं और मुझे अपने साथ निष्कंटक मुफ्त में ला सकते हैं। फिर जब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए तो वर्धा के एक विराट लेखक-सम्मेलन में उन्होंने मुझे निमंत्रणीय समझा। अपने पूर्वग्रहों के कारण दोनों बार मैं उनके सान्निध्य से बचा।
उन्हें मैं कतई उल्लेखनीय लेखक नहीं मानता था और हाल ही में जब उनकी एक प्रेत-प्रेम कथा में यह पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास 1909 में आना शुरू हो चुके थे तो मेरी यह बदगुमानी पुख्ता हो गयी कि वे मात्र अपाठ्य नहीं, अपढ़ भी हैं। उनके आजीवन संस्थापन-संपादन में निकल रही एक पत्रिका उनके मामूली औसत मंझोलेपन का उन्नतोदर आईना है और उनके संरक्षण में उनके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की जा रही तीनों पत्रिकाएं अधिकांशत: नामाकूल संपादकों के जरिये हिंदी पर नाजिल हैं, हालांकि उनमें से एक में मेरी कुछ शंकास्पद कविताओं के अन्यत्र प्रकाशित शोचनीय अंग्रेजी अनुवाद दोबारा छपे हैं।
यह सोचना भ्रामक और गलत होगा कि जो ख्याति विभूति नारायण ने ‘छिनाल’ के इस्तेमाल से हासिल की है, वह नयी है। उनके वर्धा कुलपतित्व (‘पतित’ के साथ अगर श्लेष लगे तो वह अनभिप्रेत समझा जाए) के पहले भी उन्हें लेकर अनेक अनर्गल किंवदंतियां थीं जिनका संकेत भी देना भारतीय दंड संहिता की मानहानि-संबंधित धाराओं को आकृष्ट कर लेगा; हालांकि उन्हें लेकर मुद्रणेतर माध्यमों में जो कुछ कहा जा रहा है, उस पर अगर वे अदालत गये तो उन्हें अपना शेष जीवन वकीलों के चैंबरों के पास पोर्टा कैबिन सरीखे किसी ढांचे में रह कर बिताना होगा।
गनीमत यह है कि हिंदी लेखिकाओं के लिए उन्होंने ‘छिनाल’ शब्द कहा ही नहीं है, उसे छपवाया भी है, उस पर बावेला मचने पर लोकभाषाओं और असहाय प्रेमचंद के हवालों से उसके इस्तेमाल का बचाव किया है – यानी उसे कबूल किया है – और अंत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय स्तर पर एक खेले-खाये नौकरशाह की तरह सरकारी यदिवादी मुआफी भी मांग ली है। अपने कायर मगर चालाक त्वचारक्षण में कपिल सिब्बल और विभूति नारायण की मिलीभगत कामयाब रही – लाठी भी नहीं टूटी और शास्त्री भवन की इमारत खतरनाक, कुपित सर्पिणियों से खाली करवा ली गयी।
इसे क्या कहा जाए – ‘एंटी क्लाइमैक्स’, ‘इंटर्वल’, ‘हैपी एंडिंग’, ‘ट्रेजडी’, ‘फार्स’ या ‘बेकेट-ग्रोतोव्स्की-प्रसादांत’? क्या यह मसला सिर्फ एक बदजुबान, बददिमाग कुलपति-निर्मित-आईपीएस की सार्वजनिक मौखिक-लिखित अशिष्टता का था, जिसे खुद को लेखक-बुद्धिजीवी समझने की खुशफहमी भी है, जिसकी नाबदानी फासिस्ट फूहड़ता को रफा-दफा और दाखिल-दफ्तर कर दिया गया है?
इस मामले को ‘विभूति नारायण बनाम हिंदी लेखिकाएं’ मानना सिर्फ आंशिक रूप से सही होगा। हम इस अस्तित्ववादी बहस में यहां नहीं पड़ना चाहते कि तमाम महानतम विचारों, आस्थाओं और व्यक्तित्वों के बावजूद मानवता लगातार एक आत्महंता पतन का वरण ही क्यों करने पर अभिशप्त दीखती है, लेकिन यह एक कटु, निर्मम सत्य है कि समूचे भारत के सुकूत के बीच हिंदीभाषी समाज, उसकी संस्कृति(यों), हिंदी भाषा और साहित्य की उत्तरोत्तर अवनति और सड़न अब शायद दुर्निवार और लाइलाज है – बल्कि यह तक कहा जा सकता है कि दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदीभाषी समाज, यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी, जिम्मेदार और कुसूरवार हैं।
प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, मुद्रित समाचार जगत, अकादेमियां, प्रकाशक, पुस्तकखरीद संस्थाएं, संस्कृति संसार, केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के मंत्रालय और विभाग, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका – जहां भी हिंदी में या हिंदी का काम हो या नहीं हो रहा है, वहां के सारे हिंदी-उत्तरदायी इसके अपराधी हैं। हिंदीभाषी निम्न-उच्च और मध्यवर्ग भी इसके लिए कम दोषी नहीं।
यह मैं मानता हूं कि सर्जनात्मक साहित्य में कभी-कभी कथित अश्लील भाषा और चित्रण के बगैर लेखक का काम चल नहीं सकता, हालांकि उनके बिना भी सार्थक साहित्य लिखा ही जा रहा है। लेकिन गैर-रचनात्मक लेखन में लेखक को उससे बचना चाहिए, विशेषत: जब वह किन्हीं व्यक्तियों और समूहों को लेकर अपनी कोई धारणा व्यक्त कर रहा हो।
यह सही है कि विभूति नारायण ने अपना अधिकांश कार्यकाल एक ऐसे महकमे में काटा है जिसमें अश्लीलतम गालियां देना और सुनना पेशे का अनिवार्य और स्पृहणीय अंग है। लेकिन अगर एक ओर आपको यह भ्रम हो कि आप एक वाम समर्थक-समर्थित लेखक हैं – देखिए कि जन संस्कृति मंच ने उन्हें लेकर कैसे दो परस्पर-विरोधी जैसे बयान जारी किये हैं, जिनमें से एक को जाली बताया गया था – और दूसरी ओर गांधीजी (जिनके दुर्भाग्य का पारावार नजर नहीं आता) के नाम पर खोले गये हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, तो आपको हिंदी को लेकर ‘बा मुहम्मद होशियार’ जैसा लौह-नियम जागते-सोते याद रखना चाहिए।
लेकिन, ‘जिन्हें देवता बर्बाद करना चाहते हैं पहले उन्हें विकल मस्तिष्क कर देते हैं’ वाली यूनानी कहावत के मुताबिक हमारे कुलपति का दिमाग लेखक होने के उनके वहम और वामपंथियों के अपनी वर्दी की कई जेबों में होने की खुशफहमी ने तो खराब कर ही दिया होगा, हिंदी कुलपति होने की सत्ता के कारण राष्ट्रव्यापी अधिकांश हिंदी प्राध्यापक-लेखक-प्रकाशक गुलामी जो उन्हें अनायास प्राप्त हो गयी उसने उन्हें विभूति-विभ्रम (‘डिल्यूजंस ऑफ ग्रैंड्योर’) का आखेट बना डाला। हम अधिकांश हिंदी विभागों की गलाजतों को जानते ही हैं। स्वयं गांधी विश्वविद्यालय में सैकड़ों पद और छात्रवृत्तियां हैं, एमलिट, एमफिल, पीएचडी के निबंध-प्रबंध हैं, अपने अपने रुझान के उपयुक्त छात्र-छात्राएं हैं, लेखक-लेखिकाओं को बुलाने के लिए सारे बहाने और बहकावे-बहलावे हैं।
आप ‘एक्सपर्ट’ बन कर किस-किस को कहां-कहां कैसे-कैसे सेलेक्ट और रिजेक्ट नहीं कर सकते। प्रकाशक-मुद्रक-संपादक-कागज व्यापारी आपके बूट चूमने लगते हैं। हिंदी की सारी दुनिया आपके लोलुप लोचनों में छिनाल से कम नहीं रह जाती। हिंदी का प्राय: हर व्याख्याता, रीडर या प्रोफेसर इन्हीं फंतासियों में जीता है और उन्हें चरितार्थ करने में सक्रिय रहता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब जो कल्पनातीत और अधिकांशत: अपात्र वेतनमान लागू हैं, उनके कारण प्राध्यापक वर्ग में हिंदी के शुद्ध मसिजीवी लेखकों के प्रति हिकारत और बढ़ गयी है। सभी जानते हैं कि हिंदी विभागों में कई दशकों से यौन-शोषण चल रहा है, जो अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है।
हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में ‘पुरुष-वेश्या’ ही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही ‘अक्षतयोना’ पुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से ‘कामायनी’ न पढ़ा कर ‘कुट्टनीमतं काव्यं’ पढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।
देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है – वहां यही लोग तो ‘एक्सपर्ट’ बन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सूडो-नामवर सिंह होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाला एक हिंदी प्रोफेसर केंद्रीय सेवाओं के कूड़ेदान के लिए किस कचरे का योगदान कर रहा होगा। हिंदी की साहित्यिक संस्कृति का एक अनूठा आयाम यह भी है कि प्राय: सभी लेखक और प्रकाशक आपस में मित्र या शत्रु हैं, इन दोस्तियों और दुश्मनियों में भले ही बराबरियां न हों, ये संबंध अकादमिक दुनिया तक भी पहुंचते हैं और लगातार बदलते रहते हैं। इनमें एक वर्णाश्रम धर्म और वर्ग विभाजन भी है, नवधा-भक्तियां हैं, संरक्षकत्व, अभिभावकत्व, मुसाहिबी, चापलूसी, दासता आदि जटिल तत्त्व शामिल हैं। इसमें छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों की भूमिकाएं भी हैं, मगर बड़ी पत्रिकाओं के प्रकाशकों संपादकों के पास अधिक सत्ता है।
यह इसलिए है कि यों तो अपना नाम और फोटो छपा देखने की आकांक्षा पिछले साठ वर्षों से ही देखी जा रही है, पर लेखकों में फिर भी कुछ हया, आत्मसम्मान और स्व-मूल्यांकन के जज्बात बाकी थे। दुर्भाग्यवश अब पिछले शायद दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। ‘अकविता आंदोलन’ के बाद साहित्यिक मूल्यों का ऐसा पतन सिर्फ इधर की कहानी और कविता दोनों में देखा जा रहा है। पत्रिका-जगत में ऐसे सरगनाओं जैसे संपादकों का वर्चस्व है, जो अपने-अपने लेखक-गिरोह तैयार करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के इक्कीसवीं सदी के संस्करणों का निर्लज्ज इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिभाशाली, संयमी, विवेकवान और साहसी युवा, प्रौढ़ और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएं बचे ही नहीं, मगर ग्रेशम के नियम के साहित्यिक संस्करण में खोटे सिक्कों ने वास्तविकों को बचाव-मुद्रा में ला दिया है जो अंतत: श्रेयस्कर ही है।
विभूति नारायण का छिनाल-प्रकरण अकादमिक-लेखकीय-संपादकीय मिलीभगत (‘नैक्सस’) के बिना संभव न होता। ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक रवींद्र कालिया विभूति नारायण से कम मीडिऑकर लेखक हैं या अधिक, यह बहस का मसला नहीं है, लेकिन दोनों मिल कर एक अनैतिक साहित्यिक-सत्ता का प्रदर्शन करना चाहते थे। ‘ज्ञानोदय’ दरअसल कितना छपता है इसका कुछ अंदाज हमें है; लेकिन बेशक कालिया ने उसमें और ज्ञानपीठ प्रकाशन में अपनी ‘वल्गर’ प्रतिभा से कुछ अस्थायी प्राण जरूर फूंके हैं। हम यह भी जानते हैं कि ज्ञानपीठ का प्रबंधन मूलत: राजनीतिक हवामुर्ग रहा है। कालिया अपने कांग्रेसी रिश्तों की वजह से ज्ञानपीठ में हैं, यह न तो ठीक-ठीक जाना जा सकता है और न उसकी जरूरत है।
मुझे शांतिप्रसाद-रमा जैन और लक्ष्मीचंद्र जैन के युग का ज्ञानोदय और ज्ञानपीठ याद हैं – वर्तमान निजाम को उसकी शर्मनाक अवनति ही कहा जा सकता है। लेकिन हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का उत्थान और पतन मुंबई के ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ से होता हुआ नया ज्ञानोदय तक देखा जा सकता है। कुछ संपादकों ने मुख्यत: कहानी को स्त्रियों का शिकार करने की विधा में बदल दिया और रवींद्र कालिया उसी परंपरा की सड़ांध-भरी तलछट हैं। उन्हें दो बड़ी सुविधाएं हैं; उनके पास एक पत्रिका है, एक प्रकाशन-गृह है जिनके प्रबंधक साहित्य को सिर्फ बिक्री के तराजू में तौलना जानते हैं और उन्हें एक ऐसा लेखक-समाज मिला है जो अधिकांशत: किसी भी नैतिक कीमत पर सिर्फ छपना चाहता है।
साहित्यिक पत्रकारिता में बाजारवाद ‘धर्मयुग-सारिका’ से शुरू हुआ था जो अब अन्य पत्रिकाओं के अलावा ‘ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ’ में पूर्ण-कुसुमित महारोग का विकराल रूप ले चुका है। अपनी सत्ता और सफलता से राय-कालिया गठबंधन इतना प्रमादग्रस्त हो गया था कि उसने सोचा कि वह हिंदी समाज में ‘छिनाल’ को भी निगलवा लेगा, पर वह उसके गले की हड्डी बन गया।
Sunday, August 8, 2010
स्त्रियों के पक्ष में है साक्षात्कार -निर्मला जैन
इस पूरे प्रकरण पर मुझे इस बात का बेहद खेद है कि अधिकांश लोग इस इंटरव्यू को बिना पढ़े विवाद का विषय बना रहे हैं और इसे नारेबाजी का एक रूप दे दिया है। इसमें आपत्तिजनक यह है कि इसमें 'नया ज्ञानेदय' पत्रिका के संपादकीय विभाग की लापरवाही या कहें कि संपादकीय गैर-जिम्मेदारी दिखती है।
मैने इस इंटरव्यू को पूरा पढ़ा है। इसे पढ़ने के बाद यह बात साफ हो जाती है कि यह महिलाओं के पक्ष में है। यह मैं इसलिए कह रही हूं कि जो लेखक और संपादक स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श को सामने ला रहे हैं, इस इंटरव्यू में उनका विरोध किया गया है। विभूति नारायण राय ने इस इंटरव्यू में साफ कहा है कि देह की स्वतंत्रता का नारा देकर कुछ लेखक और संपादक स्त्री विमर्श को मुख्य मुद्दे से भटका रहे हैं। इस संदर्भ में उन्होने ' हंस ' के संपादक राजेंद्र यादव की कटु आलोचना की है और दूधनाथ सिंह की ' नमोअंधकारम ' कहानी को स्त्री विरोधी बताया है। उन्होने यह भी कहा है कि देह विमर्श करने वाली स्त्रियां भी स्त्री विमर्श को शरीर से केंद्रित कर रचनात्मकता को बाधित कर रही हैं।इस इंटरव्यू में विभूति नारायण राय ने पितृसत्तात्मक समाज का भी विरोध किया है। उनका ये भी कहना है कि स्त्री विमर्श आज देह विमर्श तक सिमट कर रह गया है और इसके कारण दूसरे मुद्दे हाशिए पर चले गए हैं।
अब रही बात जिस बात पर बवेला मचा हुआ है, तो इसकी जांच होनी चाहिए कि इसके लिए विभूति नारायण जिम्मेदार हैं या ' नया ज्ञानोदय ' के संपादकीय विभाग की लापरवाही की वजह से यह सब हो रहा है।
मेरा मानना है कि एक पंक्ति को निकालकर जिस तरह वितंडा खड़ा किया जा रहा है, उससे इस समस्या का समाधान नहीं निकलेगा बल्कि इस गंभीर प्रश्न को सतही ढंग से देखने का खतरा पैदा होगा। हमें जवाब इस बात का देना है कि क्या स्त्री विमर्श सिर्फ देह की स्वतंत्रता है? मेरी राय में उसका दायरा कहीं व्यापक और गंभीर है।
लेखिका वरिष्ठ साहित्य आलोचक हैं।
मैने इस इंटरव्यू को पूरा पढ़ा है। इसे पढ़ने के बाद यह बात साफ हो जाती है कि यह महिलाओं के पक्ष में है। यह मैं इसलिए कह रही हूं कि जो लेखक और संपादक स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श को सामने ला रहे हैं, इस इंटरव्यू में उनका विरोध किया गया है। विभूति नारायण राय ने इस इंटरव्यू में साफ कहा है कि देह की स्वतंत्रता का नारा देकर कुछ लेखक और संपादक स्त्री विमर्श को मुख्य मुद्दे से भटका रहे हैं। इस संदर्भ में उन्होने ' हंस ' के संपादक राजेंद्र यादव की कटु आलोचना की है और दूधनाथ सिंह की ' नमोअंधकारम ' कहानी को स्त्री विरोधी बताया है। उन्होने यह भी कहा है कि देह विमर्श करने वाली स्त्रियां भी स्त्री विमर्श को शरीर से केंद्रित कर रचनात्मकता को बाधित कर रही हैं।इस इंटरव्यू में विभूति नारायण राय ने पितृसत्तात्मक समाज का भी विरोध किया है। उनका ये भी कहना है कि स्त्री विमर्श आज देह विमर्श तक सिमट कर रह गया है और इसके कारण दूसरे मुद्दे हाशिए पर चले गए हैं।
अब रही बात जिस बात पर बवेला मचा हुआ है, तो इसकी जांच होनी चाहिए कि इसके लिए विभूति नारायण जिम्मेदार हैं या ' नया ज्ञानोदय ' के संपादकीय विभाग की लापरवाही की वजह से यह सब हो रहा है।
मेरा मानना है कि एक पंक्ति को निकालकर जिस तरह वितंडा खड़ा किया जा रहा है, उससे इस समस्या का समाधान नहीं निकलेगा बल्कि इस गंभीर प्रश्न को सतही ढंग से देखने का खतरा पैदा होगा। हमें जवाब इस बात का देना है कि क्या स्त्री विमर्श सिर्फ देह की स्वतंत्रता है? मेरी राय में उसका दायरा कहीं व्यापक और गंभीर है।
लेखिका वरिष्ठ साहित्य आलोचक हैं।
Thursday, August 5, 2010
गर्व है कि हिंदी भाषी समूह से नहीं हूं-मोहल्ला की टिप्पणी
लेकिन मैं इस बात पर गर्व करता हूं कि मैं हिंदी भाषी समूह से नहीं आता !
(.......But I feel proud that I do not belong to Hindi linguistic group.)
मोहल्ला पर ये टिप्पणी किसी नॉन हिंदु फेमनिस्ट नाम से की गई है। राज ठाकरे की प्रवक्ता हैं...किसी भाषा को लेकर ऐसी घिनौनी टिप्पणी तो किसी ने भी नहीं की। आपकी समझ देखकर हमें भी गर्व है कि आपका नाम हिंदी से नहीं जुड़ा है। गलत सही बहस अलग बात है...भाई साहब तीन दिन में ये दशा हो जाएगी आप लोगों की ये मैं नहीं जानता था...
यह टिप्पणी आदित्यनाथ की इस आपत्ति के जवाब में आई थी। जिसमें कमेंट को जानबूझकर नॉन हिंदी स्पीकिंग वाला बताया गया है।
आप जो भी भाषा बोलती है या बोलते हैं....उसे लेकर तो कोई गलत बात नहीं मानी लेकिन आपने नॉन हिंदी स्पिकिंग होने पर गर्व कैसे कह दिया....
इनके पहले कमेंट को देखें तो आधे से ज्यादा हिस्से का कमेंट सतर्कता के साथ लिखा गया है... स्वभाविक गलती नहीं है। कहीं-कहीं तो नुख्ता भी लगा है..बीच-बीच में जानबूझकर गलती की गई है।
मैं इस बहस को ‘follow’ कर रही हूं और अब कह सकती हूं कि मेरा ‘वोट’ अविनाश, विनीत, कबीर, संजय, सुनील के बक्से में जायेगा। क्या जबर्दस्त लड़ाई की है इन्होंने ? अगर जसम का एक ‘official” पनय कृशाना की वाइफ़ पहले वर्धा में वी.एन.राय के ‘एंप्लायी’ थी, और अब वो डेलही युनिवर्सिटी में अपाएंट हो गयी तो पूरा नेक्सस साफ़ हो जाता है। और अगर उसका एक आफ़िसियल राय के बगल में जमीन खरीदता है तो वो पुख्ता होता है। और एक आफ़िसियल सुधीर सुमन थ्रेट करता है तो ये एक हकीकत मे बदल जाता है. एक घिनौना हकीकत। लेफ़्ट के नाम पर ठगी करने वाला ये लोग कौन है, क्या कोई नहीं समझ सकता है? और आदित्यनाथ तो मुझे कोई पेड मर्सिनरी लगता है। ये लोग ज्यादातर कास्टिस्ट हिंदू है और अपर कास्ट है. भारत को माडर्न बनाने की जरूरत है..लेफ़्ट-राइट तो उसके बाद आयेगा. जैसा zizek बोलता है कि हमको एक नया Left बनाना होगा and the entire youth around globe supports.
नया वामपंथ आप लोग बनाओ, मोरल, पूरा दुनिया आपका साथ देगा। ट्राइबल, गरीब, नीचे जात का..सब आपका साथ आयेगा…saare rileejan (?????)kaa log!
even God will come in your favor…अल्ला, ईश्वर, राम, बुद्धा सब आपके साथ होगा..! मार्क्स गांधी सब…
दूसरे कमेंट में इनका ज्ञान देखिए...
I know that scenario in Hindi is similar to what was in Russia and most of the Europe in early 29th century (????????????). Many stories and literature ‘overcoat’, ‘butterfly’, after the dance’ ‘my universities’, ‘daughters of landlord’ etc. are available in literature. The same and similar decaying, degenerated, pig-like rich people involved in amoras activities, male and female all.
पूरी टिप्पणी मोहल्ला पर देख सकते हैं..
धन्य है मोहल्ला का चिड़ियाघर......
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(.......But I feel proud that I do not belong to Hindi linguistic group.)
मोहल्ला पर ये टिप्पणी किसी नॉन हिंदु फेमनिस्ट नाम से की गई है। राज ठाकरे की प्रवक्ता हैं...किसी भाषा को लेकर ऐसी घिनौनी टिप्पणी तो किसी ने भी नहीं की। आपकी समझ देखकर हमें भी गर्व है कि आपका नाम हिंदी से नहीं जुड़ा है। गलत सही बहस अलग बात है...भाई साहब तीन दिन में ये दशा हो जाएगी आप लोगों की ये मैं नहीं जानता था...
यह टिप्पणी आदित्यनाथ की इस आपत्ति के जवाब में आई थी। जिसमें कमेंट को जानबूझकर नॉन हिंदी स्पीकिंग वाला बताया गया है।
आप जो भी भाषा बोलती है या बोलते हैं....उसे लेकर तो कोई गलत बात नहीं मानी लेकिन आपने नॉन हिंदी स्पिकिंग होने पर गर्व कैसे कह दिया....
इनके पहले कमेंट को देखें तो आधे से ज्यादा हिस्से का कमेंट सतर्कता के साथ लिखा गया है... स्वभाविक गलती नहीं है। कहीं-कहीं तो नुख्ता भी लगा है..बीच-बीच में जानबूझकर गलती की गई है।
मैं इस बहस को ‘follow’ कर रही हूं और अब कह सकती हूं कि मेरा ‘वोट’ अविनाश, विनीत, कबीर, संजय, सुनील के बक्से में जायेगा। क्या जबर्दस्त लड़ाई की है इन्होंने ? अगर जसम का एक ‘official” पनय कृशाना की वाइफ़ पहले वर्धा में वी.एन.राय के ‘एंप्लायी’ थी, और अब वो डेलही युनिवर्सिटी में अपाएंट हो गयी तो पूरा नेक्सस साफ़ हो जाता है। और अगर उसका एक आफ़िसियल राय के बगल में जमीन खरीदता है तो वो पुख्ता होता है। और एक आफ़िसियल सुधीर सुमन थ्रेट करता है तो ये एक हकीकत मे बदल जाता है. एक घिनौना हकीकत। लेफ़्ट के नाम पर ठगी करने वाला ये लोग कौन है, क्या कोई नहीं समझ सकता है? और आदित्यनाथ तो मुझे कोई पेड मर्सिनरी लगता है। ये लोग ज्यादातर कास्टिस्ट हिंदू है और अपर कास्ट है. भारत को माडर्न बनाने की जरूरत है..लेफ़्ट-राइट तो उसके बाद आयेगा. जैसा zizek बोलता है कि हमको एक नया Left बनाना होगा and the entire youth around globe supports.
नया वामपंथ आप लोग बनाओ, मोरल, पूरा दुनिया आपका साथ देगा। ट्राइबल, गरीब, नीचे जात का..सब आपका साथ आयेगा…saare rileejan (?????)kaa log!
even God will come in your favor…अल्ला, ईश्वर, राम, बुद्धा सब आपके साथ होगा..! मार्क्स गांधी सब…
दूसरे कमेंट में इनका ज्ञान देखिए...
I know that scenario in Hindi is similar to what was in Russia and most of the Europe in early 29th century (????????????). Many stories and literature ‘overcoat’, ‘butterfly’, after the dance’ ‘my universities’, ‘daughters of landlord’ etc. are available in literature. The same and similar decaying, degenerated, pig-like rich people involved in amoras activities, male and female all.
पूरी टिप्पणी मोहल्ला पर देख सकते हैं..
धन्य है मोहल्ला का चिड़ियाघर......
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Wednesday, August 4, 2010
नया ज्ञानोदय वाला विवादित इंटरव्यू
मोहल्ला के चंडुखाने में हर सेकेंड की रिपोर्ट हो रही है। तमतमाए हुए नकली नारी उद्धारक हाय तौबा मचा रहे हैं। उन्हे वाक्य नहीं शब्दों में घृणा दिखाई दे रही है। लेकिन अब उस साक्षात्कार को भी जाना जाय कि आखिर इसमें था क्या जो इतना बवेला मचा।
नया ज्ञानोदय- बेवफाई सुपर विशेषांक- पृष्ठ- 31-33 से साभार
साक्षात्कार
सुपरिचित उपन्यासकार विभूतिनारायण राय से राकेश मिश्र की बातचीत
राय साहब, नया ज्ञानोदय प्रेम के बाद अब बेवफाई पर विशेषांक निकालने जा रहा है, क्या प्रतिक्रिया है आपकी?
- काफी महत्त्वपूर्ण संपादक हैं रवीन्द्र कालिया। प्रेम पर निकाले गए उनके सभी अंकों की आज तक चर्चा है। इस तरह के विषय केन्द्रित विशेषांकों का सबसे बड़ा लाभ है कि न सिर्फ हिन्दी में बल्कि कई भाषाओं में लिखी गई इस तरह की रचनाएं एक साथ उपलब्ध् हो जाती हैं। साथ ही किसी विषय को लेकर विभिन्न पीढ़ियों का क्या नज़रिया है यह भी सिलसिलेवार तरीके से सामने आ जाता है। साहित्य के गम्भीर पाठकों, अध्येताओं के लिए ये अंक जरूरी हो जाते हैं। अब जब उन्होंने बेवफाई पर अंक निकालने की योजना बनायी है तो वह भी निश्चित तौर पर एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग होगा।
लेकिन आलोचना भी खूब हुई थी उन अंकों की, खासकर कुछ लोगों ने कहा कि इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर प्रेम और बेवफाई...
- हिन्दी में विध्न सन्तोषियों की कमी नहीं है। आखिर यदि वे इतने ही महत्त्वहीन अंक थे तो इतने बड़े पैमाने पर लोकप्रिय क्यों हुए? मुझे याद नहीं कि कालिया जी के संपादन को छोड़कर किसी पत्रिाका ने ऐसा चमत्कार किया हो कि उसके आठ-आठ पुनर्मुद्रण हुए हों। कुछ तो रचनात्मक कुंठा भी होती है। जैसे उन विशेषांकों के बाद मनोज रूपड़ा की एक चलताउफ सी कहानी किसी अंक में आयी थी, यह एक किस्म का अतिवाद ही है आप इतने बड़े पैमाने पर लिख जा रहे विषय का अर्थहीन ढंग से मजाक उड़ाएं। पिफर लोगों को किसने रोका है कि वे प्रेम या बेवफाई को छोड़कर अन्य विषयों पर कहानी लिखें या विशेषांक न निकालें।
तो बेवफाई को आप कैसे परिभाषित करेंगे?
- बेवफाई की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती। इसे समझने के लिए धर्म, वर्चस्व और पितृसत्ता जैसी अवधारणाओं को भी समझना होगा। यह इस उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति है जिसके तहत स्त्री या पुरुष एक-दूसरे के शरीर पर अविभाजित अधिकार चाहते हैं। प्रेमी युगल यह मानते हैं कि इस अिधकार से वंचित होना या एक-दूसरे से जुदा होना दुनिया की सबसे बड़ी विपत्ति है और इससे बचने के लिए वे मृत्यु तक का वरण करने के लिए तैयार हो सकते हैं। आधुनिक धर्मों का उदय ही पितृसत्ता के मजबूत होने के दौर में हुआ है। इसीलिए सभी धर्मों का ईश्वर पुरुष है। धर्मों ने स्त्री यौनिकता को परिभाषित और नियंत्रित किया है। उन्होंने स्त्री के शरीर की एक वर्चस्ववादी व्याख्या की है। इससे बेवफाई एकतरपफा होकर रह गई है। मर्दवादी समाज मुख्य रूप से स्त्रियों को बेवफा मानता है। सारा साहित्य स्त्रिायों की बेवफाई से भरा हुआ है जबकि अपने प्रिय पर एकाधिकार की चाहना स्त्री-पुरुष दोनों की हो सकती है और दोनों में ही प्रिय की नज़र बचाकर दूसरे को हासिल करने की इच्छा हो सकती है।
देखा जाए तो, बेवफाई एक नकारात्मक पद है लेकिन इसका पाठ हमेशा रोमांटिक या लुत्फ देने वाला क्यों होता है?
-वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। पिफर यहां लुत्फ लेने वाला कौन है मुख्य रूप से पुरुष ! व्यक्तिगत संपत्ति और आय के स्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचाकर आनन्द ले सकता है, उन्हें रखैल बना सकता है, बेवफा के तौर पर उनकी कल्पना कर उन्हें अपने फैंटेसी में शामिल कर सकता है। पर जैसे-जैसे स्त्रियां व्यक्तिगत संपत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ़ रही है।
हिन्दी समाज से कुछ उदाहरण....
-क्यों नहीं। पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक `कितने बिस्तरों पर कितनी बार´ हो सकता था। इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे। दरअसल, इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं। मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता। आखिर पहले पुरुष चटखारे लेकर बेवफाई का आनन्द उठाता था, अब अगर स्त्रियां उठा रही हैं तो हाय तौबा क्या मचाना। बिना जजमेंटल हुए मैं यह यहां जरूर कहूंगा कि यहां औरतें वही गलतियां कर रही हैं जो पुरुषों ने की थी। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियां भी आकर्षण, प्रेम और आस्था के खूबसूरत सम्बंध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस संभावना को बाधित कर रही है जिसके तहत देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाया।
क्या बेवफाई का जेण्डर विमर्श सम्भव है एक पुरुष और एक स्त्री के बेवफा होने में क्या अन्तर है?
-मैंने ऊपर निवेदन किया है कि बेवफाई को समझने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति, धर्म या पितृसत्ता जैसी संस्थाओं को ध्यान में रखना होगा। एंगेल्स की पुस्तक `परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति´ से बार-बार उद्धृत किया जाने वाला प्रसंग जिसमें एंगेल्स इस दलील को खारिज करते हैं कि लंबे नीरस दाम्पत्य से उत्कट प्रेम पगा एक ही चुंबन बेहतर है और कहते हैं कि यह तर्क पुरुष के पक्ष में जाता है। जब तक संपत्ति और उत्पादन के स्रोतों पर स्त्री-पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा पुरुष इस स्थिति का फायदा स्त्री के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा। असमानता समाप्त होने तक बेवफाई का जेण्डर विमर्श न सिर्फ सम्भव है बल्कि होना ही चाहिए।
हिन्दी साहित्य में तलाशना हो तो पुरुष के बेवफाई विमर्श का सबसे खराब उदाहरण `नमो अंधकारम्´ नामक कहानी है। लोग जानते हैं कि कहानी इलाहाबाद के एक मार्क्सवादी रचनाकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी। उसमें बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे हैं। इस कहानी के लेखक के एक सहकर्मी महिला के साथ सालों ऐलानिया रागात्मक सम्बंध् रह हैं। उन्होंने कभी छिपाया नहीं और शील्ड की तरह लेकर उसे घूमते रहे। पर उस कहानी में वह औरत किसी निम्पफोमेनियाक कुतिया की तरह आती है। लेखक ऐसे पुरुष का प्रतिनिधि चरित्रा है जिसके लिए स्त्री कमतर और शरीर से अधिक कुछ नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं कि अगर उस औरत ने इस पुरुष लेखक की बेवफाई की कहानी लिखी होती तो क्या वह भी इतने ही निर्मम तटस्थता और खिल्ली उड़ाउ ढंग से लिख पाती?
बेवफाई कहीं न कहीं एक ताकत का भी विमर्श है। क्या महिला लेखकों द्वारा बड़ी संख्या में अपनी यौन स्वतंत्रता को स्वीकारना एक किस्म का पावर डिसकोर्स ही है ?
-सही है कि बेवफाई पावर डिसकोर्स है। आप भारतीय समाज को देंखे! अर्ध सामन्ती- अर्धऔपनिवेशिक समाज- काफी हद तक पितृसत्तात्मक है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा के बढ़ते अवसर या मूल्यों के स्तर पर हो रही उथल-पुथल ने स्त्री पुरुषों को ज्यादा घुलने-मिलने के अवसर प्रदान किए हैं। पर क्या ज्यादा अवसरों ने ज्यादा लोकतांत्रिक संबंध भी विकसित किए हैं? उत्तर होगा- नहीं। पुरुष के लिए स्त्री आज भी किसी ट्राफी की तरह है। अपने मित्रों के साथ रस ले-लेकर अपनी महिला मित्रों का बखान करते पुरुष आपको अकसर मिल जाएंगे। रोज ही अखबारों में महिला मित्रों की वीडियो क्लिपिंग बना कर बांटते हुए पुरुषों की खबरें पढ़ने को मिलेंगी। अभी हाल में मेरे विश्वविद्यालय की कुछ लड़कियों ने मांग की कि उन्हें लड़कों के छात्रावासों में रुकने की इजाजत दी जाए। मेरी राय स्पष्ट थी कि अभी समाज में लड़कों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है कि वे लड़कियों को बराबरी का साथी समझें। गैरबराबरी पर आधरित कोई भी संबंध अपने साथी की निजता और भावनात्मक संप्रभुता का सम्मान करना नहीं सिखाता। हर असपफल सम्बंध एक इमोशनल ट्रॉमा की तरह होता है जिसका दंश लड़की को ही झेलना पड़ता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्वाभाविक ही है कि स्त्री पुरुष के लिए एक ट्रॉफी की तरह है...जितनी अिधक स्त्रियां उतनी अधिक ट्रॉफियां।
महिला लेखिकाओं द्वारा बड़े पैमाने पर अपनी यौन स्वतन्त्रता को स्वीकारना इसी डिसकोर्स का भाग बनने की इच्छा है। आप ध्यान से देखें- ये सभी लेखिकाएं उस उच्च मध्यवर्ग या उच्च वर्ग से आती हैं जहां उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता अपेक्षाकृत कम है। इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।
पूंजी, तकनीक और बाजार ने मानवीय रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित किया है। ऐसे में यह धारणा आयी है कि लोग बेवफा रहें लेकिन पता नहीं चले। यह कौन सी स्थिति है
-सही है कि बाजार ने तमाम रिश्तों की तरह आज औरत और मर्द के रिश्तों को भी परिभाषित करना शुरू कर दिया है। यह परिभाषा धर्म द्वारा गढ़ी- परिभाषा से न सिर्फ भिन्न है बल्कि उसके द्वारा स्थापित नैतिकता का अकसर चुनौती देती नज़र आती है। आप पाएंगे कि आज एसएमएस और इंटरनेट उस तरह के सम्बंध विकसित करने में सबसे अधिक मदद करते हैं जिन्हें स्थापित अर्थों में बेवफाई कहते हैं। पर आपके प्रश्न के दूसरे भाग से मैं सहमत नहीं हूं। विवाहेतर रिश्तों को स्वीकार करने का साहस आज बढ़ा है। पहली बार भारत जैसे पारंपरिक समाज में लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ा है। लोग ब्वॉय प्रफेण्ड या गर्ल प्रफेण्ड जैसे रिश्ते स्वीकारने लगे हैं। हां, यह जरूर है कि यह स्थिति उन वर्गों में ही अधिक है जहां स्त्रियां आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं।
क्या कलाकार होना बेवफा होने का लाइसेंस है?
-इसका कोई सरलीकृत उत्तर नहीं हो सकता। कलाकार अन्दर से बेचैन आत्मा होता है। धर्म या स्थापित मूल्यों से निर्धारित रिश्ते उसे बेचैन करते हैं। वह बार-बार अपनी ही बनाई दुनिया को तोड़ता-पफोड़ता है और उसे नये सिरे से रचता-बसता है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उसकी अतृप्ति उसे नये-नये भावनात्मक सम्बंध् तलाशने के लिए उकसाती है। कलाकार के पास अभिव्यक्ति के औजार भी होते हैं इसलिए वह अपनी बेवफाई, जिसमें कई बार दूसरे को धोखा देकर छलने के तत्व भी होते हैं, को बड़ी चालाकी से जस्टिपफाई कर लेता है। साधारण व्यक्ति पकड़े जाने पर जहां हकलाते गले और पफक पड़े चेहरे से अपनी कमजोर सपफाई पेश करने की कोशिश करता है वहीं कलाकार बड़ी दुष्टता के साथ छल सकने में समर्थ तर्क गढ़ लेता है। अकसर आप पाएंगे कि दूसरों को धोखा देने वाले तर्कों को रखते-रखते वह स्वयं उनमें यकीन करने लगता है। यदि एक बार पिफर हिन्दी से ही उदाहरण तलाशने हों तो राजेन्द्र यादव की आत्मकथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राजेन्द्र अपनी मक्कारी को साबित करने के लिए जिस झूठ और पफरेब का सहारा लेते हैं, आप पढ़ते हुए पाएंगे कि मन्नू भण्डारी को कनविन्स करते-करते वे खुद विश्वास करने लगते हैं कि अपने साथी से छल-कपट लेखक के रूप में उनका अिधकार है।
यह सही कहा आपने, दरअसल हिन्दी में बेवफाई की सुसंगत और योजनाब( शुरुआत नई कहानी की कहानियों और कहानीकारों से ही दिखती है।
-हां, लेकिन उसके ठोस कारण भी हैं। कहानी, उपन्यास, की जिस वास्तविक जमीन को छोड़कर ये मध्यवर्ग की कुंठाओं, त्रासदियों और अकेलेपन को सैद्दांतिक स्वरूप देने में मसरूफ थे, उसमें तो ऐसी स्थितियां पैदा होनी ही थी। यह अकारण नहीं कि ये विख्यात महारथी अपने जीवन काल में ही अपनी कहानियों से ज्यादा अपने (कुद्ध कृत्यों के लिए मशहूर हो चले थे। राजेन्द्र जी तो अपनी मशहूरी अभी तक ढो रहे हैं।
वी एन राय और अविनाश में से कौन है राठौर ?
मोहल्ला ने ताजा पोस्ट का शिर्षक दिया है 'राठौर की मुस्कान लेकर वी एन राय ने दिया चैनलों को बाइट'। आपकी समझ से कौन है राठौर के नजदीक?
नाम करतूत अंजाम अभी की स्थिति
वी एन राय- 'छिनाल' अपशब्द बोला - -माफी मांगी- पूर्व-पुलिस अधिकारी और वीसी
एसपीएस राठौर- बलात्कार का आरोपी -जेल में - पूर्व पुलिस अधिकारी
अविनाश दास- बलात्कार का आरोपी - कोई कार्रवाई नहीं - मोहल्ला ब्लॉग के मॉडरेटर
नाम करतूत अंजाम अभी की स्थिति
वी एन राय- 'छिनाल' अपशब्द बोला - -माफी मांगी- पूर्व-पुलिस अधिकारी और वीसी
एसपीएस राठौर- बलात्कार का आरोपी -जेल में - पूर्व पुलिस अधिकारी
अविनाश दास- बलात्कार का आरोपी - कोई कार्रवाई नहीं - मोहल्ला ब्लॉग के मॉडरेटर
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